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________________ ३२४ भीमद् राजवन्द्र [पत्र ३३९, ३४० और उपाधिमें क्या होता है, यह आगे चलकर देख लेंगे । देख लेंगे-इसका अर्थ बहुत गंभीर है। सर्वात्मा हरि समर्थ है। महंत पुरुषोंकी कृपासे निर्बल मति कम ही रहती है । यद्यपि आपके उपाधि-योगमें लक्ष रहा करता है, परन्तु जो कुछ सत्ता है वह सब सर्वात्माके ही हाथ है । और वह सत्ता निश्चयसे आकांक्षारहित ऐसे ज्ञानीको ही प्राप्त होती है । जबतक उस सर्वात्मा हरिकी इच्छा जैसे हो, वैसे ज्ञानीको भी चलना, यह आज्ञांकित धर्म है। ऊपर जो उपाधिमेंसे अहंभावके छोड़नेके वचन लिखे हैं, उनके ऊपर आप थोड़े समय विचार करें। आपकी उसीमें उस प्रकारकी दशा हो जाय ऐसी आपकी मनोवृत्ति है । फिरसे निवेदन है कि उपाधिमें जैसे बने तैसे निःशंक रहकर उद्यम करना । आगे क्या होगा, यह विचार छोड़ देना। ३३९ बम्बई, आसोज वदी ८, १९४८ लोक-व्यापक अंधकारमें अपनेद्वारा प्रकाशित ज्ञानी पुरुष ही याथातथ्य देखते हैं । लोककी शब्द आदि कामनाओंके प्रति देखते हुए भी उदासीन रहकर जो केवल अपनेको ही स्पष्टरूपसे देखते हैं, ऐसे ज्ञानीको हम नमस्कार करते हैं, और इस समय इतना ही लिखकर ज्ञानसे स्फुरित आत्मभावको तटस्थ करते हैं। ३४० बम्बई, आसोज १९४८ (१) जो कुछ उपाधि की जाती है, वह कुछ निज-भावके कारण करनेमें नहीं आती-उस प्रकारसे नहीं की जाती । वह जिस कारणसे की जाती है, वह कारण अनुक्रमसे वेदन करने योग्य ऐसा प्रारब्ध कर्म है । जो कुछ उदयमें आये उसका अविसंवाद परिणामसे वेदन करना, इस प्रकार जो ज्ञानीका बोध है, वह हममें निश्चल रहता है-अर्थात् हम उसी प्रकारसे वेदन करते हैं। परन्तु इच्छा तो ऐसी रहती है कि अल्प कालमें ही एक समयमें ही--यदि वह उदय असत्ताको प्राप्त होता हो तो हम इन सबमेंसे उठकर चले जाँय-आत्मामें इतनी स्वतंत्रता रहा करती है। फिर भी निद्रा-काल, भोजन-काल तथा अमुक अवकाश-कालके सिवाय उपाधिका प्रसंग रहा करता है और कुछ भिन्नरूप नहीं होता, तो भी किसी भी प्रसंगपर आत्मोपयोग अप्रधानभावका सेवन करते हुए देखा जाता है, और उस प्रसंगपर मृत्युके शोकसे भी अधिक शोक होता है, यह बात निस्सन्देह है। ऐसा होनेके कारण, और जबतक गृहस्थ-प्रत्ययी प्रारब्ध उदयमें रहे, तबतक सर्वथा अयाचक भावके सेवन करनेमें चित्त रहनेमें ही ज्ञानी पुरुषोंका मार्ग रहता है, इस कारण इस उपाधिका सेवन करते हैं। यदि उस मार्गकी उपेक्षा करें तो भी हम ज्ञानीका विरोध नहीं करते, फिर भी उसकी उपेक्षा नहीं हो सकती । यदि उसकी उपेक्षा करें तो गृहस्थ अवस्था भी वनवासरूपसे सेवन होने लग जाय,.ऐसा तीब वैराग्य रहा करता है। सर्व प्रकारके कर्तव्यमें उदासीनरूप ऐसे हमसे यदि कुछ हो सकता हो तो एक यही हो सकता
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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