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________________ पत्र ३३५, ३३६, ३३७] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष ३२१ जाता है, उस संसारमें उस साक्षीसे साक्षीरूप रहना, और कर्त्तारूपसे भासमान होना, यह दुधारी तलवारपर चलनेके समान है। ऐसा होनेपर भी यदि वह साक्षी-पुरुष भ्रांतियुक्त लोगोंको, किसीको खेद, दुःख और अलाभका कारण मालूम न पड़े, तो उस प्रसंगमें उस साक्षी-पुरुषको अत्यंत कठिनाई नहीं है। हमें तो अत्यंत कठिनाईके प्रसंगका उदय रहता है। इसमें भी उदासीनभाव ही ज्ञानीका सनातन धर्म है ( यहाँ धर्म शब्द आचरणके अर्थमें है)। एक बार जब एक तुच्छ तिनकेके दो भाग करनेकी क्रियाके कर सकनेकी शक्तिका भी उपशम हो, उस समय जो ईश्वरेच्छा होगी वही होगा। अचिंत्यदशास्वरूप. बम्बई, आसोज सुदी १ बुध. १९४८ जीवके कर्तृत्त्व-अकर्तृत्त्वको समागममें श्रवण करके निदिध्यासन करना योग्य है । वनस्पति आदिके संयोगसे पारेका बँधकर चाँदी वगैरह रूप हो जाना संभव नहीं होता, यह बात नहीं है । योग-सिद्धिके भेदसे किसी तरह ऐसा हो सकता है, और जिसे उस योगके आठ अंगोंमेंसे पाँच अंग प्राप्त हो गये हैं, उसे सिद्धि-योग होता है । इसके सिवाय कोई दूसरी कल्पना करना केवल कालक्षेपरूप ही है । यदि उसका विचार भी उत्पन्न हो तो वह भी एक कौतुकरूप ही है, और कौतुक आत्म-परिणामके लिये योग्य नहीं है । पारेका स्वाभाविकरूप पारापन ही है। ३३६ बम्बई, आसोज सुदी ७ भौम. १९४८ प्रगट आत्मस्वरूप अविच्छिन्नरूपसे सेवन करने योग्य है। वास्तविक बात तो ऐसी है कि किये हुए कर्म बिना भोगे निवृत्त होते नहीं, और नहीं किये हुए किसी कर्मका फल मिलता नहीं। किसी किसी समय अकस्मात् किसीको वर अथवा शाप देनेसे जो शुभ अथवा अशुभ फल मिलता हुआ देखनेमें आता है, वह किसी नहीं किये हुए कर्मका फल नहीं है-वह भी किसी प्रकारसे किये हुए कर्मका ही फल है। एकेन्द्रियका एकावतारीपना अपेक्षासे समझने योग्य है। ३३७ बम्बई, आसोज सुदी १०, १९४८ (१) भगवती आदि सिद्धांतोंमें जो किन्हीं किन्हीं जीवोंके भवांतरका वर्णन किया है, उसमें कुछ संशय होने जैसी बात नहीं । तीर्थकर तो भला पूर्ण आत्मस्वरूप हैं। परन्तु जो पुरुष केवल योग, ध्यान आदिके अभ्यासके बलसे रहते हों, उन पुरुषों के भी बहुतसे पुरुष भवांतरको जान सकते हैं; और ऐसा होना कुछ कल्पित बात नहीं है। जिस पुरुषको आत्माका निश्चयात्मक ज्ञान है, उसे भवांतरका ज्ञान होना योग्य है-होता है । कचित् बानके तारतम्य-क्षयोपशम-भेदसे वैसा कमी ४१
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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