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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३२० यदि कोई दूसरा भी परमार्थसंबंधी विचार–प्रश्न-उत्पन्न हो और यदि उसे लिखकर रख सको तो लिख रखनेका विचार योग्य है । पूर्वमें आराधना की हुई, जिसका नाम केवल उपाधि है, ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है । हालमें वहाँ बाँचन, श्रवण, और मननका साधन किस प्रकार रहता है ! आनन्दघनजीके दो वाक्य याद आ रहे हैं, उन्हें लिखकर यह पत्र समाप्त करता हूँ। इणविध परखी मन विसरामी, जिनवर गुण जे गावे रे, दीनबंधुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे हो । मल्लिजिन सेवक किम अवगणिये हो। मन महिलानुं वहाला उपरे, बीजां काम करत रे। ३२० बम्बई, श्रावण वदी १०, १९४८ मन महिलातुं वहाला उपरे, बीजां काम करत रे, तेम श्रुतधर्मे मन दृढ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत रे। धन धन सासन श्रीजिनवरतणुं । जिस प्रकार घरसंबंधी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी पतिव्रता (महिला) स्त्रीका मन अपने प्रिय भर्तारमें ही लीन रहता है, उसी तरह सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त संसारमें रहकर समस्त कार्योंके प्रसंगमें प्रवृत्ति करते हुए भी, वह ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेश-धर्म ही लीन रहता है । समस्त संसारमें स्त्री और पुरुषके स्नेहको ही प्रधान माना गया है, उसमें भी पुरुषके प्रति स्त्रीका प्रेम इससे भी किसी प्रकार विशेष प्रधान माना गया है; और इसमें भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीका स्नेह तो सर्वप्रधान गिना गया है । यह स्नेह ऐसा सर्वप्रधान क्यों माना गया है ! इसके उत्तरमें सिद्धांतको प्रबलरूपसे दिखानेके लिये इस दृष्टांतको देनेवाले सिद्धांतकार कहते हैं कि हम उस स्नेहको सर्वप्रधान इसीलिये मानते हैं कि दूसरे सब घरसंबंधी (और दूसरे भी) काम करते रहनेपर भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमें ही लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे और इच्छारूपसे रहता है । परन्तु सिद्धांतकार कहते हैं कि इस स्नेहका कारण तो संसार-प्रत्ययी है और यहाँ तो असंसारप्रत्ययी करनेके लिये कहनेका लक्ष्य है। इसलिये जिसमें वह स्नेह लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे और इच्छारूपसे करना योग्य है जिसमें वह स्नेह असंसार-परिणमनको प्राप्त करता हैउस उपदेश-धर्मको कहते हैं। उस स्नेहको पतिव्रतारूप ऐसे मुमुक्षुको ज्ञानीसंबंधी श्रवणरूप उपदेश आदि धर्ममें उसी प्रकारसे करना योग्य है; और जब जो जीव उसके लिये उसी प्रकारसे आचरण करता है, तब वह "कांता" नामकी समकितसंबंधी दृष्टिमें स्थित हो जाता है, ऐसा हम मानते हैं। १ इस प्रकार परीक्षा करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनबंधुकी कृपा: दृष्सेि आनंदसे भरपूर पदको पाता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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