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________________ ३०२ • श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३१२ यहाँ आत्मभावसे समाधि है । उदय-भावके प्रति उपाधि रहती है । श्रीतीर्थकरने तेरहवें गुण स्थानकमें रहनेवाले पुरुषका निम्नलिखित स्वरूप कहा है:___आत्मभावके लिये जिसने सर्व संसार संवृत कर दिया है-अर्थात् जिसके सब संसारकी आती हुई इच्छा निरुद्ध हो गई है, ऐसे निम्रन्थको-सत्पुरुषको-तेरहवें गुणस्थानकमें समझना चाहिये। ___ मनसमितिसे युक्त, वचनसमितिसे युक्त, कायसमितिसे युक्त, किसी भी वस्तुका ग्रहण और त्याग करते हुए समितिसे युक्त, दीर्घ शंका आदिका त्याग करते हुए समितिसे युक्त, मनका संकोच करनेवाला, वचनका संकोच करनेवाला, कायाका संकोच करनेवाला, सर्व इन्द्रियोंके संकोचपनेसे ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक चलनेवाला, उपयोगपूर्वक खड़ा होनेवाला, उपयोगपूर्वक बैठनेवाला, उपयोगपूर्वक शयन करनेवाला, उपयोगपूर्वक बोलनेवाला, उपयोगपूर्वक आहार लेनेवाला, उपयोगपूर्वक श्वासोच्छवास लेनेवाला, आँखके एक निमेषमात्र भी उपयोगरहित आचरण न करनेवाला, अथवा जिसकी उपयोगरहित एक भी क्रिया नहीं है, ऐसे निर्ग्रन्थको एक समयमें क्रियाका बँध होता है, दूसरे समयमें उसका वेदन होता है, तीसरे समयमें वह कर्मरहित हो जाता है, अर्थात् चौथे समयमें उसकी क्रियासंबंधी सर्व चेष्टायें निवृत्त हो जाती हैं। श्रीतीर्थकर जैसेको कैसा अत्यन्त निश्चल (अपूर्ण) ३१२ बम्बई, आषाढ़ सुदी ९ रवि. १९४८ जिनका चित्त शब्द आदि पाँच विषयोंकी प्राप्तिकी इच्छासे अत्यन्त व्याकुल रहा करता है, ऐसे जीव जहाँ विशेषरूपसे दिखाई देते हैं, ऐसा दुःषमकाल कलियुग नामका काल है । उसमें भी जिसे परमार्थके संबंध विह्वलता नहीं हुई, जिसके चित्तको विक्षेप नहीं हुआ, जिसे संगद्वारा प्रवृत्ति-भेद नहीं हुआ, जिसका चित दूसरी प्रीतिके संबंधसे आवृत नहीं हुआ, जिसका विश्वास दूसरे कारणोंमें नहीं रहा ऐसा जो कोई भी हो तो वह इस कालमें ' दूसरा श्रीराम ' ही है। फिर भी देखकर खेदपूर्वक आश्चर्य होता है कि इन गुणोंसे किसी अंशमें भी संपन्न अल्प जीव भी दृष्टिगोचर नहीं होते। निद्राके सिवाय बाकीके समयमेंसे एकाध घंटेके सिवाय शेष समय मन, वचन और कायासे उपाधिके योगमें रहता है । कोई उपाय नहीं है, इसलिये सम्यक्परिणतिसे संवेदन करना ही योग्य है। महान् आश्चर्यको प्राप्त करानेवाले ऐसे जल, वायु, चन्द्र सूर्य, अग्नि आदि पदार्थोके गुण सामान्य प्रकारसे भी जीवोंकी दृष्टिमें नहीं आते, और अपने छोटेसे घरमें अथवा और भी दूसरी किन्हीं चीजोंमें किसी प्रकारका मानो आश्चर्यकारक स्वरूप देखकर अहंभाव रहता है, यह देखकर ऐसा होता है कि लोगोंका अनादिकालका दृष्टि-भ्रम दूर नहीं हुआ। जिससे यह दूर हो ऐसे उपायमें जीवका अल्प ज्ञान भी नहीं रहता, और उसकी पहिचान होनेपर भी स्वेच्छासे बर्ताव करनेकी बुद्धि बारम्बार उदित होती रहती है। ऐसे बहुतसे जीवोंकी स्थिति देखकर ऐसा समझो कि यह लोक अभी अनंतकालतक रहनेवाला है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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