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________________ २९८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३०५, ३०६ ऐसा हमारा निश्चय है कि जिन पुरुषोंने इस सूत्रकृतांगकी रचनाकी है वे आत्मस्वरूप पुरुष थे। 'जीवको यह कर्मरूपी जो क्लेश प्राप्त हुआ है, वह कैसे दूर हो ?' इस प्रश्नको मुमुक्षु शिष्यके हृदयमें उद्भूत करके, वह 'बोध प्राप्त करनेसे दूर हो सकता है' यह सूत्रकृतांगका प्रथम वाक्य है। फिर शिष्यको दूसरा प्रश्न होता है कि 'वह बंधन क्या है, और वह क्या जाननेसे दूर हो सकता है। तथा उस बंधनको वीरस्वामीने किस प्रकारसे कहा है !' इस प्रकारके वाक्यद्वारा यह प्रश्न रक्खा गया है; अर्थात् शिष्यके प्रश्नमें यह वाक्य रखकर प्रन्थकार ऐसा कहते हैं कि हम तुम्हें आत्मस्वरूप ऐसे श्रीवीरस्वामीका कहा हुआ आत्मस्वरूप कहेंगे, क्योंकि आत्मस्वरूपके लिये आत्मस्वरूप पुरुष ही अत्यंत प्रतीतिके योग्य है । इसके पश्चात् ग्रन्थकार जो उस बंधनका स्वरूप कहते हैं, वह फिर फिरसे विचार करने योग्य है । तत्पश्चात् इसपर विशेष विचार करनेसे ग्रन्थकारको याद आया कि यह समाधिमार्ग आत्माके निश्चयके बिना प्राप्त नहीं होता; तथा जगत्वासी जीव अज्ञानी उपदेशकोंसे जीवका अन्यथा स्वरूप जानकर-कल्याणका अन्यथा स्वरूप जानकर-अन्यथाको ही सत्य मान बैठे हैं; उस निश्चयका भंग हुए बिना-उस निश्चयमें सन्देह पड़े बिना-जो समाधि-मार्ग हमने अनुभव किया है, वह उन्हें किस प्रकारसे सुनानेसे कैसे फलीभूत होगा-ऐसा जानकर ग्रन्थकार कहते हैं कि ' ऐसे मार्गका त्याग करके कोई एक श्रमण ब्राह्मण अज्ञातपनेसे, बिना बिचारे अन्यथा प्रकारसे मार्ग कहते हैं।' इस अन्यथा प्रकारके कथनके पश्चात् प्रन्थकार निवेदन करते हैं कि कोई पंचमहाभूतका ही अस्तित्व मानते हैं, और इन्हींसे आत्माका उत्पन्न होना भी मानते हैं; जो ठीक नहीं बैठता; ऐसा कहकर प्रन्थकार आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं। जिस जीवने अपनी नित्यता ही नहीं जानी, तो फिर वह निर्वाणका यत्न किस प्रयोजनसे करेगा ! ऐसा अभिप्राय बताकर नित्यता दिखलाई गई है। इसके पश्चात् भिन्न भिन्न प्रकारसे कल्पित अभिप्राय दिखाकर यथार्थ अभिप्रायका उपदेश करके यथार्थ मार्गके बिना छुटकारा नहीं, गर्भ दूर नहीं होता, जन्म दूर नहीं होता, मरण दूर नहीं होता, दुःख दूर नहीं होता, आधि, व्याधि और उपाधि कुछ भी दूर नहीं होती; और जैसा हम ऊपर कह आये हैं कि ऐसे सबके सब मतवादी ऐसे ही विषयोंमें निमग्न हैं कि जिससे जन्म, जरा, मरण आदिका नाश नहीं होता-इस प्रकार विशेष उपदेशरूप आग्रहपूर्वक प्रथम अध्ययन समाप्त किया है । उसके पश्चात् अनुक्रमसे इससे बढ़ते हुए परिणामसे आत्मार्थके लिये उपशम-कल्याणका उपदेश दिया है । इसे लक्षपूर्वक पढ़ना और श्रवण करना योग्य है । कुल-धर्मके लिये सूत्रकृतांगका पढ़ना और श्रवण करना निष्फल है। . ३०६ बम्बई, वैशाख वदी १९४८ श्रीस्तंभतीर्थवासी जिज्ञासुको श्री००० मोहमयीसे अमोहस्वरूप श्री०००० का आत्म-समानभावकी स्मृतिपूर्वक यथायोग्य बाँचना। .. हालमें यहाँ बाह्य प्रवृत्तिका संयोग विशेषरूपसे रहता है। ज्ञानीका देह उपार्जन किये हुए पूर्वकर्मके निवृत्त करनेके लिये और अन्यकी अनुकंपाके लिये होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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