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________________ पत्र ३०३] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष २९५ __जो बात ऊपर कही है, उसमें तुम लोगोंको बाधा करनेवाले अनेक प्रसंग आया करते हैं; यह हम जानते हैं; तथापि उन सब बाधा पहुँचानेवाले प्रसंगोंमें जैसे बने वैसे सदुपयोगसे विचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करना, यह क्रम क्रमसे ही होने जैसी बात है । किसी भी प्रकारसे मनमें संताप करना योग्य नहीं; जो कुछ पुरुषार्थ हो उसे करनेकी दृढ़ इच्छा रखनी ही योग्य है; और जिसे परमबोध स्वरूपकी पहिचान है ऐसे पुरुषको तो निरन्तर ही पुरुषार्थके विषयमें वैसी प्रवृत्ति करते रहनेमें घबड़ाना योग्य नहीं है। अनंतकालमें भी जो प्राप्त नहीं हुआ, उसकी प्राप्तिके लिये यदि अमुक काल व्यतीत हो जाय तो भी कोई हानि नहीं है। हानि केवल इसीमें है कि अनंतकालमें भी जो प्राप्त नहीं हुआ, उसके विषयमें भ्रान्ति हो-भूल हो। यदि परम ज्ञानीका स्वरूप भासमान हो गया है तो फिर उसके मार्गमें भी अनुक्रमसे जीवका प्रवेश हो सकता है, यह आसानीसे समझमें आ सकने जैसी बात है। जिस तरह मन ठीक रीतिसे चले, इस तरहसे बर्ताव करो। वियोग है तो उसमें कल्याणका भी वियोग है, यह बात सत्य है; तथापि यदि ज्ञानीके वियोगमें भी उसी विषयमें चित्त रहता है तो कल्याण है । धीरजका त्याग करना योग्य नहीं । श्रीस्वरूपका यथायोग्य. ३०३ बम्बई, वैशाख वदी १४ बुध. १९४८ मोहमयीसे जिसकी अमोहरूप स्थिति है, ऐसे श्री....का यथायोग्य. " मनके कारण ही यह सब कुछ है," ऐसा जो अबतकका किया हुआ निर्णय लिखा वह सामान्यरूपसे तो याथातथ्य है; तथापि 'मन', 'उसके कारण ही ', ' यह सब कुछ ', और ' उसका निर्णय', ये जो इस वाक्यके चार भाग होते हैं, यह बहुत समयके ज्ञानसे यथार्थरूपसे समझमें आता है, ऐसा मानते हैं। जिसकी समझमें यह आ जाता है, उसके वशमें मन रहता है, यह बात निश्चयरूप है; तथापि यदि न रहता है तो भी वह आत्मस्वरूपमें ही रहता है। मनके वशमें होनेका यह उत्तर ऊपर लिखा है, यही सबसे मुख्य है। जो वाक्य लिखा गया है वह बहुत प्रकारसे विचारने योग्य है। महात्माकी देह दो कारणोंसे विद्यमान रहती है:-प्रारब्ध कर्मको भोगनेके लिये, और जीवोंके कल्याणके लिये; तथापि वह महात्मा इन दोनोंमें उदासरूपसे उदय आई हुई प्रवृत्तिसे रहता है; ऐसा मानते हैं। ___ध्यान, जप, तप, और यदि इन क्रियाओंके द्वारा ही हमारे द्वारा कहे हुए वाक्यको परम फलका कारण समझते हो और यदि उसे निश्चयसे समझते हो तो-पीछेसे बुद्धि लोक-संज्ञा, शास्त्र-संज्ञापर न जाती हो तो-और चली गई हो तो वह भ्रांतिपूर्वक चली गई है, ऐसा समझते हो तो-और उस वाक्यको अनेक प्रकारके धीरजसे विचारनेकी इच्छा हो तो ही लिखनेकी इच्छा होती है। अभी इससे विशेषरूपसे निश्चयविषयक धारणा करनेके लिये लिखना आवश्यक जैसा मालूम होता है, तथापि चित्त अवकाशरूपसे नहीं रहता, इसलिये जो लिखा है उसको मुख्यरूपसे मानना ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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