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________________ पत्र २९३, २९४, २९५,] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष २९१ उपार्जन किया हुआ प्रारब्ध है, जिसे भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, और उसे समतासे भोगना ही योग्य है; इसलिये मनकी ग्लानिको जैसे बने तैसे शान्त करना और जो कर्म उपार्जित नहीं किये वे भोगनेमें नहीं आते, ऐसा समझकर दूसरे किसीके प्रति दोष-दृष्टि करनेकी वृत्तिको जैसे बने तैसे शान्त करके समतासे प्रवृत्ति करना, यह योग्य मालूम होता है, और यही जीवका कर्तव्य है। २९३ बम्बई, चैत्र सुदी १३ शुक्र. १९४८ (१) एक समयके लिये जी अप्रमत्तधाराको विस्मरण नहीं करनेवाला ऐसा आत्माकार मन वर्तमान समयमें उदयानुसार प्रवृत्ति करता है; और जिस किसी भी प्रकारसे प्रवृत्ति होती है उसका कारण पूर्वमें बंध करनेमें आया हुआ उदय ही है; उस उदयमें प्रीति भी नहीं और अप्रीति भी नहीं; समता है; और करने योग्य भी यही है । (२) समकितकी स्पर्शना कब हुई समझनी चाहिये ? उस समय कैसी दशा रहती है ! इस विषयका अनुभव करके लिखना। सांसारिक उपाधिका जो कुछ भी होता हो उसे होने देना; यही कर्तव्य है, और यही अभिप्राय रहा करता है । धीरजसे उदयका वेदन करना ही योग्य है । (३) प्रतिबंधपना दुःखदायक है। स्वरूपस्थ यथायोग्य. २९४ बम्बई, चैत्र वदी १ बुध. १९४८ आत्म-समाधिपूर्वक योग-उपाधि रहा करती है। इस प्रतिबंधके कारण हालमें तो कुछ भी इच्छित काम नहीं किया जा सकता । इसी हेतुके कारण श्रीऋषभ आदि ज्ञानियोंने शरीर आदिके प्रवृत्ति करनेके भानका भी त्याग किया था। समस्थित भाव. २९५ बम्बई, चैत्र वदी ५ रवि. १९४८ सत्संग होनेके समागमकी इच्छा करते हैं, परन्तु उपाधि-योगके उदयका भी वेदन किये बिना उपाय नहीं। जगत्में कोई दूसरे पदार्थ तो हमें किसी भी रुचिके कारण नहीं रहे । जो कुछ रुचि रही है वह केवल एक सत्यका ध्यान करनेवाले 'संत' के प्रति, जिसमें आत्माका वर्णन है ऐसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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