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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २८०, २८१ नहीं हो जाता तबतक निश्चयसे अप्रमत्तपनेसे बारम्बार पुरुषार्थका स्वीकार करना ही योग्य है। यह बात तीनों कालमें संदेहरहित है, ऐसा जानकर निष्कामरूपसे लिखी है। २८० बम्बई, फाल्गुन सुदी ४ बुध. १९४८ आरंभ और परिग्रहका ज्यों ज्यों मोह दूर होता जाता है, ज्यों ज्यों उनसे अपनेपनका अभिमान मंद पड़ता जाता है, त्यों त्यों मुमुक्षुता बढ़ती जाती है । अनंतकालसे जिससे परिचय चला आ रहा है ऐसा यह अभिमान प्रायः एकदम निवृत्त नहीं हो जाता; इस कारण तन, मन, धन आदि जिनमें अपनापन आ गया है, उन सबको ज्ञानीके प्रति अर्पण किया जाता है। ज्ञानी प्रायः उन्हें कुछ ग्रहण नहीं करते, परन्तु उनमेंसे अपनेपनके दूर करनेका उपदेश देते हैं; और करने योग्य भी यही है कि आरंभ, परिग्रहको बारम्बारके प्रसंगमें विचार विचारकर अपना होते हुए रोकना; तभी मुमुक्षुता निर्मल होती है। (२) " जीवको सत्पुरुषकी पहिचान नहीं होती; उसके प्रति भी अपने समान ही व्यावहारिक कल्पना रहा करती है—जीवकी यह दशा किस उपायसे दूर हो ?" इस प्रश्नका उत्तर यथार्थ ही लिखा है । यह उत्तर वैसा है जिसे ज्ञानी अथवा ज्ञानीके आश्रयमें रहनेवाला ही जान सकता है, कह सकता है, अथवा लिख सकता है । मार्ग कैसा होना चाहिये, यह जिसे बोध नहीं है, ऐसे शास्त्राभ्यासी पुरुष, उसका यथार्थ उत्तर न दे सकें, यह भी यथार्थ ही है । " शुद्धता विचारे ध्यावे" इस पदके विषयमें फिर कभी लिखेंगे । अंबारामजीकी पुस्तकके संबंधमें आपने विशेष बाँचन करके जो अभिप्राय लिखा है, उसके विषयमें बातचीत होनेपर फिर कभी कहेंगे । हमने इस पुस्तकका बहुतसा भाग देखा है, परन्तु हमें उनकी बातें सिद्धान्त-ज्ञानसे बराबर बैठती हुई नहीं मालूम होती। और ऐसा ही है; तथापि उस पुरुषकी दशा अच्छी है, मार्गानुसारी जैसी है, ऐसा तो कह सकते हैं । जिसे हमने सैद्धान्तिक अथवा यथार्थ ज्ञान माना है, वह तो अत्यन्त ही सूक्ष्म है, और वह प्राप्त हो सकनेवाला ज्ञान है । विशेष फिर । २८१ बम्बई, फाल्गुन सुदी १० बुध.१९४८ 'फिर कभी लिखेंगे, फिर कभी लिखेंगे' ऐसा बहुतबार लिखकर भी लिखा नहीं जा सका, यह क्षमा करने योग्य है; क्योंकि चित्तकी स्थिति प्रायः करके विदेही जैसी रहती है। इसलिये कार्यमें अव्यवस्था हो जाती है । हालमें जैसी चित-स्थिति है वैसी अमुक समयतक रक्खे बिना छुटकारा नहीं है। - ज्ञानी पुरुष बहुत बहुत हो गये हैं, परन्तु उनमें हमारे जैसे उपाधि-प्रसंग और उदासीनअत्यन्त उदासीन-चित्तस्थितिवाले प्रायः थोरे ही हुए हैं। उपाधिके प्रसंगके कारण आत्मासंबंधी जो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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