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________________ पत्र २६०, २६१, २६२] विविध पत्र आदि संग्रह-२५याँ वर्ष २७५ ज्ञानीद्वारा किये हुए निश्चयको जानकर प्रवृत्ति करनेमें ही कल्याण है-फिर तो जैसी होनहार । सुधाके विषयमें हमें सन्देह नहीं है । तुम उसका स्वरूप समझो, और तब ही फल मिलेगा। २६० बम्बई, मंगसिर वदी १४ गुरु. १९४८ अनुक्रमे संयम स्पर्शतोजी, पाम्यो शायकमाव रे, संयमश्रेणी फूलडेजी, पूजू पद निष्पाव रे । (आत्माकी अभेद चिंतनारूप ) संयमके एकके बाद एक क्रमका अनुभव करके क्षायिकभाव (जड़ परिणतिका त्याग) को प्राप्त जो श्रीसिद्धार्थके पुत्र, उनके निर्मल चरण-कमलको संयम-श्रेणीरूप फूलोंसे पूजता हूँ। ऊपरके वचन अतिशय गंभीर हैं। यथार्थबोध स्वरूपका यथायोग्य. बम्बई, पौष सुदी ३ रवि.१९४८ अनुक्रमे संयम स्पर्शतोजी, पाम्यो क्षायकभाव रे, संयमश्रेणी फूलडेजी, पूजूं पद निष्पाव रे। देर्शन सकलना नय आहे, आप रहे निज भावे रे, हितकरी जनने संजीवनी, चारो तेह चरावे रे । दर्शन जे थयां जूजवां, ते ओघ नजरने फेरे रे, दृष्टि थिरादिक तेहमां, समकित दृष्टिने हेरे रे। योगना बीज इहां आहे, जिनवर शुद्ध प्रणामो रे, भावाचारज सेवना, भव उद्वेग मुठामो रे । २६२ बम्बई, पौष सुदी ५, १९४८ क्षायिक चरित्रको स्मरण करते हैं जनक विदेहीकी बात लक्षमें है । करसनदासका पत्र लक्षमें है। बोधस्वरूपका यथायोग्य. १इस पदके अर्थके लिये देखो ऊपर नं. २६०. अनुवादक. २ समस्त दर्शनीको नयरूपसे समझे, और स्वयं निजमावमें लीन रहे। तथा मनुष्योंको हितकर संजीवनीका चाराचराये। ३ जो हमें मिन मिन दर्शन दिखाई पड़ते हैं, वे केवल ओप-दृष्टिके फेरसे ही दिखाई देते हैं। स्थिरा आदि दृष्टिका भेद समकित-हिसे होता है। इस दृष्टिमें योगका बीज ग्रहण करे, तथा जिनवरको एक प्रणाम करे; भावाचार्यकी सेवा और संसारसे उद्वेग हो, यही मोक्षकी प्रातिका मार्ग है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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