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भीमद् राजचन्द्र [पत्र २५०, २५१, २५२ २५३, २५४,
... बम्बई, १९४७ यदि चित्तकी स्थिरता हुई हो तो ऐसे समयमें यदि सत्पुरुषोंके गुणोंका चिन्तवन, उनके वचनोंका मनन, उनके चारित्रका कथन, कीर्तन, और प्रत्येक चेष्टाका फिर फिरसे निदिध्यासन हो सकता हो, तो इससे मनका निग्रह अवश्य हो सकता है और मनको जीतनेकी सचमुच यही कसौटी है।
ऐसा होनेसे ध्यान क्या है, यह समझमें आ जायगा; परन्तु उदासीनभावसे चित्त-स्थिरताके समयमें उसकी खूबी मालूम पड़ेगी।
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बम्बई, १९४७ १. उदयको अबंध परिणामसे भोगा जाय, तो ही उत्तम है।
२. “ दोके अंतमें रहनेवाली वस्तुको कितना भी क्यों न छेदें, फिर भी छेदी नहीं जाती, और भेदनेसे भेदी नहीं जाती "-श्रीआचारांग ।
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बम्बई, १९४७ आत्माके लिये विचार-मार्ग और भक्ति-मार्गकी आराधना करना योग्य है; परन्तु जिसकी विचार-मार्गकी सामर्थ्य नहीं उसे उस मार्गका उपदेश करना योग्य नहीं, इत्यादि जो लिखा वह ठीक ही है।
श्री....स्वामीने केवलदर्शनसंबंधी कही हुई जो शंका लिखी उसे बाँची है। दूसरी बहुतसी बातें समझ लेनेके बाद ही उस प्रकारकी शंकाका समाधान हो सकता है, अथवा प्रायः उस प्रकारको समझनेकी योग्यता आती है। ___हालमें ऐसी शंकाको संक्षिप्त करके अथवा शान्त करके विशेष निकट आत्मार्थका विचार ही योग्य है। .
२५३ ववाणीआ, कार्तिक सुदी ४ गुरु. १९४८ काल विषम आ गया है । सत्संका योग नहीं है, और वीतरागता विशेष है, इसलिये कहीं भी साता नहीं, अर्थात् मन कहीं भी विश्रांति नहीं पाता । अनेक प्रकारकी विडंबना तो हमें नहीं है, तथापि निरन्तर सत्संग नहीं, यही बड़ी भारी विडम्बना है। लोक-संग अच्छा नहीं लगता।
२५४ ववाणीआ, कार्तिक मुदी ७ रवि. १९४८ चाहे जो क्रिया, जप, तप अथवा शास्त्र-वाचन करके भी एक ही कार्य सिद्ध करना है, और वह यह है कि जगत्को विस्मृत कर देना, और सत्के चरणमें रहना ।
और इस एक ही लक्षके ऊपर प्रवृत्ति करनेसे जीवको उसे क्या करना योग्य है, और क्या करना अयोग्य है, यह बात समझमें आ जाती है, अथवा समझमें आने लगती है।