SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र २४०] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २६७ यही हाल है। परम प्रेमसे अखंड हरिरसका अखंडपनेसे अनुभव करना अभी कहाँसे आ सकता है! और जबतक ऐसा न हो तबतक हमें जगत्में की एक वस्तुका एक अणु भी अच्छा लगनेवाला नहीं। जिस युगमें भगवान् व्यासजी थे वह युग दूसरा था; यह कलियुग है; इसमें हरिस्वरूप, हरिनाम, और हरिजन देखनेमें नहीं आते, सुनने तकमें भी नहीं आते; इन तीनोंमेंसे किसीकी भी स्मृति हो, ऐसी कोई भी चीज़ दखनेमें नहीं आती। सब साधन कलियुगसे घिर गये हैं। प्रायः सभी जीव उन्मार्गमें प्रवृत्ति कर रहे हैं, अथवा सन्मार्गके सन्मुख चलनेवाले जीव दृष्टिगोचर नहीं होते । कहीं कोई मुमुक्षु हैं भी, परन्तु उन्हें अभी मार्गकी सन्निकटता प्राप्त नहीं हुई है। निष्कपटीपना भी मनुष्यों से चला हीसा गया है; सन्मार्गका एक भी अंश और उसका सौवाँ अंश भी किसीमें नज़र नहीं पड़ता; केवलज्ञानका मार्ग तो सर्वथा विसर्जन ही हो गया है । कौन जाने हरिकी क्या इच्छा है ! ऐसा कठिन काल तो अभी ही देखा है। सर्वथा मंद पुण्यवाले प्राणियोंको देखकर परम अनुकंपा उत्पन्न होती है; और सत्संगकी न्यूनताके कारण कुछ भी अच्छा नहीं लगता। बहुत बार थोड़ा थोड़ा करके कहा गया है, तो भी ठीक ठीक शब्दोंमें कहनेसे अधिक स्मरणमें रहेगा, इसलिये कहते हैं कि बहुत समयसे किसीके साथ अर्थ-संबंध और काम-संबंध बिलकुल ही अच्छा नहीं लगता । अब तो धर्म-संबंध और मोक्ष-संबंध भी अच्छा नहीं लगता। धर्म-संबंध और मोक्ष-संबंध तो प्रायः योगियोंको भी अच्छा लगता है; और हम तो उससे भी विरक्त ही रहना चाहते हैं। हालमें तो हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता, और जो कुछ अच्छा लगता भी है उसका अत्यन्त वियोग है । अधिक क्या लिखें ? सहन करना ही सुगम है। २४० ववाणीआ, आसोज सुदी ६ गुरु. १९४७ १. 'परसमय' के जाने बिना 'स्वसमय' जान लिया है, ऐसा नहीं कह सकते। २. 'परद्रव्य ' के जाने बिना 'स्वद्रव्य ' जान लिया है, ऐसा नहीं कह सकते। ३. सन्मतिसूत्रमें श्रीसिद्धसेन दिवाकरने कहा है कि जितने वचन-मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। ४. अक्षयभगत कविने कहा है: कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छ महा भजननो मर्म । जो तुं जीव तो कर्ता हरी, जो तुं शिव तो वस्तु खरी । तुं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ । यदि कर्तापनेका भाव मिट जाय तो कर्म छूट जाता है, यह महा भजनका मर्म है । यदि तू जीव है तो हरि कर्ता है। यदि त् शिव है तो वस्तु भी सत्य है। तू ही जीव है और तू ही नाथ है, ऐसा कहकर 'अक्षय' ने हाथ झटक लिया।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy