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पत्र २३०, २३१, २३२, २३३, २३४ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २६५
२३० ववाणीआ, भाद्र. वदी ४ भौम. १९४७ ऐसे एक ही पदार्थका परिचय करना योग्य है कि जिससे अनन्त प्रकारका परिचय निवृत्त हो जाय; वह पदार्थ कौनसा और किस प्रकारसे है, इसका मुमुक्षु लोग विचार किया करते हैं।
सत्में अभेद. २३१ ववाणीआ, भाद्र. वदी ४ भौम. १९४७ जिस महान् पुरुषका चाहे जैसा भी आचरण वंदनके योग्य ही हो, ऐसे महात्माके प्राप्त होनेपर, निस्सन्देहरूपसे जिस तरह कभी भी आचरण न करना चाहिये, यदि वह उसी तरहका आचरण करता हो, तो मुमुक्षुको कैसी दृष्टि रखनी, यह बात समझने जैसी है। अप्रगट सत्.
२३२ ववाणीआ, भाद्र. वदी ५ बुध. १९४७ कलियुगमें अपार कष्टसे सत्पुरुषकी पहिचान होती है। फिर भी उसमें कंचन और कामिनीका मोह उत्कृष्ट प्रेमको उत्पन्न नहीं होने देता । जीवकी वृत्ति ऐसी है कि वह पहिचान होनेपर भी उसमें निश्चलतासे नहीं रह सकता; और यह फिर कलियुग है; जो इसमें मोहित नहीं होता उसे नमस्कार है।
२३३ ववाणीआ, भाद्र. वदी ५ बुध. १९४७ हालमें तो 'सत् ' केवल अप्रगट रहा हुआ मालूम देता है। वह हालमें जुदी जुदी चेष्टाओंसे प्रगट जैसा माननेमें आता है (योग आदि साधन, आत्माका ध्यान, अध्यात्म-चितवन, शुष्क वेदान्त वगैरहसे), परन्तु वह ऐसा नहीं है।
जिनभगवान्का सिद्धान्त है कि जड़ किसी कालमें भी जीव नहीं हो सकता; और जीव किसी कालमें भी जड़ नहीं हो सकता; इसी तरह किसी कालमें 'सत्' भी सत्के सिवाय दूसरे किसी भी साधनसे उत्पन्न नहीं हो सकता; फिर भी आश्चर्य है कि इस प्रकार स्पष्ट समझमें आनेवाली बातमें जीव मोहित होकर अपनी कल्पनासे 'सत्' करनेका दावा करता है; उसे 'सत्' प्ररूपित करता है, और 'सत्' का उपदेश करता है।
जगत्में सुन्दर दिखानेके लिये मुमुक्षु जीव कुछ भी आचरण न करे, परन्तु जो सुन्दर हो उसका ही आचरण करे।
२३४ ववाणीआ, भाद्र. वदी ५ बुध. १९४७ आज आपका एक पत्र मिला। उसे पढ़कर सर्वात्माका चितवन अधिक याद आया है। हमें सत्संगका बारम्बार वियोग रखना, ऐसी हरिकी इच्छाको सुखदायक कैसे माना जाय ! फिर भी माननी पड़ती है।
........को दासत्वभावसे वंदन करता हूँ। इनकी "सत्" प्राप्त करनेके लिये यदि तीन इच्छा रहती हो तो भी सत्संगके बिना उस तीव्रताका फलदायक होना कठिन है । हमें तो कुछ भी