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________________ २५८ भीमद् राजचन्द्र [पत्र २२३ २२३ बम्बई, श्रावण सुदी १९४७ इस जगत्में, चतुर्थकाल जैसे कालमें भी सत्संगकी प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है, तो फिर इस दुःषमकालमें तो उसकी प्राप्ति होना अत्यन्त ही दुर्लभ है; ऐसा समझकर जिस जिस प्रकारसे सत्संगका वियोग रहनेपर भी आत्मामें गुणोत्पत्ति हो सके, उस उस प्रकारसे आचरण करनेका पुरुषार्थ बारम्बार, जब कभी भी और प्रसंग प्रसंगपर करना चाहिये; तथा निरन्तर सत्संगकी इच्छा-असत्संगमें उदासीनता-रहनमें उसका मुख्य कारण पुरुषार्थ ही है, ऐसा समझकर निवृत्तिके जो कोई कारण हों उन उन कारणोंका बारम्बार विचार करना योग्य है। ___ हमको इस तरह लिखते हुए यह स्मरण आ रहा है कि " क्या करें" अथवा " किसी भी प्रकारसे नहीं होता" ऐसा विचार तुम्हारे चित्तमें बारम्बार आता रहता होगा; तथापि ऐसा योग्य मालूम होता है कि जो पुरुष दूसरे सब प्रकारके विचारको अकर्तव्यरूप समझकर आत्म-कल्याणमें ही उद्यमी होता है, उसको कुछ न जाननेपर भी उसी विचारके परिणाममें रहना योग्य है, और 'किसी भी प्रकारसे नहीं होता' इस तरह मालूम होनेके प्रगट होनेका कारण या तो जीवको उत्पन्न हो जाता है, अथवा कृतकृत्यताका स्वरूप उत्पन्न हो जाता है। ... ज्ञानी पुरुषने दोषपूर्ण स्थितिमें इस जगत्के जीवोंको तीन प्रकारसे देखा है:-(१) जीव किसी भी प्रकारसे दोष अथवा कल्याणका विचार नहीं कर सका, अथवा विचार करनेकी स्थितिमें वह बेसुध है—ऐसे जीवोंका यह प्रथम प्रकार है । (२)जीव अज्ञानतासे असत्संगके अभ्याससे भासमान होनेवाले बोधसे दोष करता है, और उस क्रियाको कल्याण-स्वरूप मानता है-ऐसे जीवोंका यह दूसरा प्रकार है । (३) जिसकी स्थिति मात्र उदयके आधीन रहती है, और सब प्रकारके पर-स्वरूपका साक्षी ऐसा बोध-स्वरूप जीव केवल उदासीनतासे कर्त्ता दिखाई देता है-ऐसे जीवोंका यह तीसरा प्रकार है। ___ इस प्रकार ज्ञानी पुरुषने तीन प्रकारके जीवोंके समूहको देखा है । प्रायः करके प्रथम प्रकारमें स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, आदिकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रकारमें तद्रूप परिणामीके समान मालूम होनेवाले जीवोंका समावेश होता है। दूसरे प्रकारमें जुदा जुदा धर्मोकी नाम-क्रिया करनेवाले जीव, अथवा स्वच्छंद परिणामी, जो अपने आपको परमार्थ-मार्गपर चलनेवाला मानते हैं, ऐसी बुद्धिसे गृहीत जीवोंका समावेश होता है। तीसरे प्रकारमें ऐसे जीवोंका समावेश होता है कि जिन्हें स्त्री, पुत्र, मित्र आदिकी प्राप्ति-अप्राप्ति आदिके भावमें वैराग्य उत्पन्न हो गया है, अथवा वैराग्य दुआ करता है, जिनके स्वच्छंद परिणाम नष्ट हो गये हैं, और जो निरन्तर ही ऐसे भावके विचारमें रहते हैं । अपना विचार तो ऐसा है कि जिससे तीसरा प्रकार सिद्ध हो जाय । जो विचारवान हैं उन्हें यथाबुद्धिपूर्वक, सग्रंथसे और सत्संगसे यह विचार प्राप्त होता है, और उनमें अनुक्रमसे दोषरहित वैसा स्वरूप उत्पन्न होता है। यह बात फिर फिरसे सोते हुए, जागते हुए, और दूसरी तरहसे भी विचारने और मनन करने योग्य है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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