SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २१८, २१९ बहुतसे मुमुक्षुओंकी दशा नहीं है; सिद्धांत-ज्ञान भी साथमें होना चाहिये । यह सिद्धांत-ज्ञान हमारे हृदयमें आवरितरूपसे पड़ा हुआ है । यदि हरिकी इच्छा प्रगट होने देनेकी होगी तो वह प्रगट होगा। __ हमारा देश हरि है, जाति हरि है, काल हरि है, देह हरि है, रूप हरि है, नाम हरि है, दिशा हरि है, सब कुछ हरि ही हरि है, और फिर भी हम इस प्रकार कारबार में लगे हुए हैं, यह इसीकी इच्छाका कारण है । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । २१८ बम्बई, आषाढ वदी ४ शनि. १९४७ जीव स्वभावसे ही दूषित है, तो फिर उसके दोषकी ओर देखना, यह अनुकम्पाका त्याग करने जैसी बात है, और बड़े पुरुष इस तरहकी आचरण करनेकी इच्छा नहीं करते। कलियुगमें असत्संग एवं नासमझीके कारण भूलसे भरे हुए रास्तेपर न चला जाय, ऐसा होना बहुत ही कठिन है। बम्बई, आषाढ १९४७ (१) श्रीसद्गुरु कृपा माहात्म्य बिना नयन पावे नहीं, बिना नयनकी बात । सेवे सद्गुरुके चरन, सो पावे साक्षात् ॥ १॥ बुझी चहत जो प्यासको, है बुझनकी रीत; पावे नहीं गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित ॥ २॥ एही नहीं है कल्पना, एहि नहीं विभंग; कयि नर पंचमकालमें, देखी वस्तु अभंग ॥ ३ ॥ नहिं दे तुं उपदेशकुं, प्रथम लेहि उपदेश; सबसे न्यारा अगम है, वो ज्ञानीका देश ॥ ४ ॥ जप, तप, और व्रतादि सब, तहां लगी भ्रमरूप; जहाँ लगी नहीं संतकी, पाई कृपा अनूप ॥ ५॥ पायाकी ए बात है, निज छंदनको छोड़; पिछे लाग सत्पुरुषके, तो सब बंधन तोड़ ॥ ६ ॥ (२) तृषातुरको पिलानेकी मेहनत करना । जो तृषातुर नहीं, उसे तृषातुर करनेकी अभिलाषा पैदा करना । जिसे वह अभिलाषा पैदा न हो, उसके प्रति उदासीन रहना। उपाधि इतनी लगी हुई है कि यह काम भी नहीं हो पाता । परमेश्वरको अनुकूल नहीं आता तो क्या करें।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy