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________________ पत्र २००, २०१, २०२] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २४७ २०० बम्बई, चैत्र सुदी १० शनि. १९४७ सर्वात्मस्वरूपको नमस्कार वह दशा जिसमें अपना और बिराना कुछ भी भेदभाव नहीं रहता-उसकी प्राप्ति अब समीप ही है, ( इस देहमें है); और उसके कारण परेच्छासे रहते हैं । पूर्वमें जिस जिस विद्या, बोध, ज्ञान, और क्रियाकी प्राप्ति हो गई है, उन सबको इस जन्ममें ही विस्मरण करके निर्विकल्प हुए बिना छुटकारा नहीं; और इसी कारण इस तरहसे रहते हैं। तथापि आपकी अत्यधिक आकुलता देखकर यत्किंचित् आपको उत्तर देना पड़ा है; और वह भी स्वेच्छासे नहीं दिया है । ऐसा होनेसे आपसे प्रार्थना है कि इन सब मायायुक्त विद्या अथवा मायायुक्त मार्गके संबंधमें आपकी तरफसे मेरी दूसरी दशा होनेतक स्मरण न दिलाया जाय, यही उत्तम है। २०१ बम्बई, चैत्र सुदी १४ गुरु. १९४७ ज्ञानीकी परिपक्व अवस्था ( दशा ) होनेपर राग-द्वेपकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है, ऐसी हमारी मान्यता है। ईश्वरेच्छाके अनुसार जो हो उसे होने देना, यह भक्तिमानके लिये सुख देनेवाली बात है । २०२ बम्बई, चैत्र सुदी १५ गुरु. १९४७ परमार्थमें नीचेकी बातें विशेष उपयोगी हैं:१. पार होनेके लिये जीवको पहिले क्या जानना चाहिये ? २. जीवके परिभ्रमण करने में मुख्य कारण क्या है ? ३. वह कारण किस तरह दूर हो सकता है ! ४. उसके लिये सुगमसे सुगम अर्थात् अल्पकालमें ही फल देनेवाला उपाय कौनसा है ? ५. क्या ऐसा कोई पुरुष है कि जिससे इस विषयका निर्णय हो सके ! क्या तुम मानते हो इस कालमें कोई ऐसा पुरुष होगा ? और मानते हो तो किन कारणोंसे ? ऐसे पुरुषके कौनसे लक्षण हो सकते हैं ! वर्तमानमें ऐसा पुरुष तुम्हें किस उपायसे प्राप्त हो सकता है ! ६. क्या यह हो सकता है कि सत्पुरुषकी प्राप्ति होनेपर जीवको मार्ग न मिले ! ऐसा हो तो उसका क्या कारण है ! यदि इसमें जीवकी अयोग्यता जान पड़े तो वह योग्यता किस विषयकी है ! ७.............के संगसे योग्यता आनेपर क्या उसके पाससे ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है ! जानकी प्राप्तिके लिये योग्यता बहुत बलवान कारण है । ईश्वरेच्छा बलवान है और सुखकारक है। बारम्बार यही शंका मनमें उठा करती है कि क्या बंधनहीन कभी बंधनमें फंस सकता है ! आपकी इस विषयमें क्या राय है !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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