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________________ पत्र १७०, १७१] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २२९ गया है, उसका प्रतिबंध भी अवसरके प्राप्त होनेपर नाश होता है; इतनी शिक्षा स्मरण करने योग्य है। । यदि व्याख्यान करना पड़े तो करना, परन्तु व्याख्यान करनेकी योग्यता अभीतक मुझमें नहीं है; और यही मुझे प्रतिबंध है-ऐसा समझते हुए उदासीन भावसे व्याख्यान करना । व्याख्यान न करना पड़े इसके लिये यथाशक्य श्रोतृवर्गको जितने रुचिकर प्रयत्न हो सकें उतने सब करना; किन्तु यदि वैसा करनेपर भी व्याख्यान करना ही पड़े तो उपरिनिर्दिष्ट उदासीन भावसे ही करना । १७० बम्बई, माघ सुदी ९ भौम. १९४७ ज्ञान परोक्ष है किंवा अपरोक्ष, इस विषयको पत्रमें नहीं लिखा जा सकता; परन्तु सुधाकी धाराके पीछेका कुछ दर्शन हुआ है; और यदि कभी असंगताके साथ आपका सत्संग मिला तो वह अंतिम परिपूर्ण प्रकाश कर सकता है, क्योंकि उसे प्रायः सब प्रकारसे जान लिया है और वही उसके दर्शनका मार्ग है । इस उपाधियोगमें भगवान् इस दर्शनको नहीं होने देंगे, इस प्रकार वे मुझे प्रेरित किया करते हैं; अतएव जिस समय एकांतवासी हो सकेंगे उस समय जान बूझकर भगवान्का रक्खा हुआ पड़दा थोड़े ही प्रयत्नसे हट जायगा । १७१ बम्बई, माघ सुदी ११. गुरु १९४७ सत्को अभेदभावसे नमोनमः दूसरी सब प्रवृत्तियोंकी अपेक्षा जीवको योग्यता प्राप्त हो, ऐसा विचार करना योग्य है; और उसका मुख्य साधन सब प्रकारके काम-भोगसे वैराग्यसहित सत्संग है। ___ सत्संग ( समान वयवाले पुरुषोंका-समगुणी पुरुषोंका योग ) में जिसको सत्का साक्षाकार हो गया है ऐसे पुरुषके वचनोंका अनुशीलन करना चाहिये, और उसमें से योग्य काल आनेपर सत्की प्राप्त होती है। जीव अपनी कल्पनासे किसी भी प्रकारसे सत्को प्राप्त नहीं कर सकता । सजीवन मूर्ति प्राप्त होनेपर ही सत् प्राप्त होता है, सत् समझमें आता है, सत्का मार्ग मिलता है, और सत्पर लक्ष आता है; सजीवन मूर्तिके लक्षके बिना जो भी कुछ किया जाता है, वह सब जीवको बंधन ही है, यही हमारा हार्दिक अभिमत है। यह काल सुलभबोधित्व प्राप्त होनेमें विघ्नरूप है, फिर भी दूसरे कालोंकी अपेक्षा अभी उसका विषमपना बहुत कुछ कम है; ऐसे समयमें जिससे वक्रपना और जड़पना प्राप्त होता है ऐसे मायारूप व्यवहारमें उदासीन होना ही श्रेयस्कर है........सत्का मार्ग तो कहीं भी दिखाई नहीं देता। तुम सबको आजकल जो कोई जैनदर्शनकी पुस्तकें पढ़नेका परिचय रहता हो, उसमेंसे जिस भागमें जगतूका विशेष वर्णन किया हो उस भागके पढ़नेका लक्ष कम करना; तथा जीवने क्या नहीं किया, और उसे अब क्या करना चाहिये, इस भागके पढ़नेका और विचारनेका विशेष लक्ष रखना।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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