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________________ प्रस्तावना राग रहता ही है; और जहाँ राग है वहाँ मोक्ष संभव नहीं । मुक्तं पुरुषके योग्य वीतरागता या तीर्थंकर की विभूतियाँ श्रीमद्को प्राप्त नहीं हुईं थीं । परन्तु सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा श्रीमद्की वीतरागता और विभूतियाँ बहुत अधिक थीं, इसलिये हम उन्हें लौकिक भाषा में वीतराग और विभूतिमान कहते हैं । परन्तु मुक्त पुरुषके लिये मानी हुई वीतरागता और तीर्थंकरकी विभूतियोंको श्रीमद् न पहुँच सके थे, यह मेरा दृढ़ मत है । यह कुछ मैं एक महान् और पूज्य व्यक्तिके दोष बतानेके लिये नहीं लिखता । परन्तु उन्हें और सत्यको न्याय देने के लिये लिखता हूँ । यदि हम संसारी जीव हैं तो श्रीमद् असंसारी थे। हमें यदि अनेक योनियोंमें भटकना पड़ेगा तो श्रीमद्को शायद एक ही जन्म बस होगा । हम शायद मोक्षसे दूर भागते होंगे तो श्रीमद् वायुवेग से मोक्षकी ओर धँसे जा रहे थे । यह कुछ थोड़ा पुरुषार्थ नहीं । यह होनेपर भी मुझे कहना होगा कि श्रीमद्ने जिस अपूर्व पदका स्वयं सुंदर वर्णन किया है, उसे वे प्राप्त न कर सके थे । उन्होंने ही स्वयं कहा है कि उनके प्रवासमें उन्हें सहाराका मरुस्थल बीचमें आ गया 1 और उसका पार करना बाकी रह गया । परन्तु श्रीमद् राजचन्द्र असाधारण व्यक्ति थे । उनके 1 लेख उनके अनुभवके बिंदुके समान हैं। उनके पढ़नेवाले, विचारनेवाले और तदनुसार आचरण करनेवालों को मोक्ष सुलभ होगा, उनकी कषायें मंद पड़ेंगी, और वे देहका मोह छोड़ कर आत्मार्थी बनेंगे । 1 इसके ऊपरसे पाठक देखेंगे कि श्रीमद्के लेख अधिकारीके लिये ही योग्य हैं । सब पाठक तो उसमें रस नहीं ले सकते । टीकाकारको उसकी टीकाका कारण मिलेगा । परन्तु श्रद्धावान तो उसमें से रस ही लूटेगा । उनके लेखों में सत् नितर रहा है, यह मुझे हमेशा भास हुआ है । उन्होंने अपना ज्ञान बतानेके लिये एक भी अक्षर नहीं लिखा । लेखकका अभिप्राय पाठकोंको अपने आत्मानंदमें सहयोगी बनानेका था । जिसे आत्मक्लेश दूर करना है, जो अपना कर्त्तव्य जाननेके लिये उत्सुक है, उसे श्रीमद्के लेखोंमेंसे बहुत कुछ मिलेगा, ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले ही कोई हिन्दूधर्मका अनुयायी हो या अन्य किसी दूसरे धर्मका । ऐसे अधिकारीके, उनके थोडेसे संस्मरणोंकी तैयार की हुई सूची उपयोगी होगी, इस आशासे उन संस्मरणोंको इस प्रस्तावनामें स्थान देता हूँ ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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