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________________ पत्र १३५, १३६] . विविध पत्र मादि संग्रह-२३याँ वर्ष २११ तीन प्रकारका महावीर्य कहा है:(१) सात्विक (२) राजसिक (३) तामसिक तीन प्रकारका सात्विक शुक्ल महावीर्य कहा है:(१) सात्विक शुक्ल (२) सात्विक धर्म (३) सात्विक मित्र तीन प्रकारका सात्विक शुक्क महावीर्य कहा है:(१) शुक्रज्ञान (२) शुक्रदर्शन (३) शुक्लचारित्र ( शील) सात्विक धर्म दो प्रकारका कहा है:(१) प्रशस्त (२) प्रसिद्ध प्रशस्त इसे भी दो प्रकारका कहा है:(१) पन्नंतसे . (२) अपनंतसे । सामान्य केवली तीर्थकर यह अर्थ समर्थ है। १३५ ववाणीआ, आसोज सुदी११शुक्र. १९४६ यह बँधा हुआ ही मोक्ष पाता है, ऐसा क्यों नहीं कह देते ! ऐसी किसकी इच्छा है कि वैसा होने देता है! जिनभगवान्के वचनकी रचना अद्भुत है। इसकी तो नाहीं कर ही नहीं सकते। परन्तु पाये हुए पदार्थका स्वरूप उसके शास्त्रोंमें क्यों नहीं ! क्या उसको आश्चर्य नहीं मालूम हुआ होगा, क्यों छिपाया होगा ! एक बार वह अपने भुवनमें बैठा था......प्रकाश था, किन्तु झाँखा था। मंत्रीने आकर उससे कहा, आप किस विचारका कष्ट उठा रहे हैं ! यदि वह योग्य हो तो उसे इस दीनसे कहकर उपकृत करें। १३६ ववाणीआ, आसोज सुदी ११ शुक्र.१९.४६ पद मिला । सर्वार्थसिद्धकी ही बात है। जैनसिद्धांतमें ऐसा कहा गया है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमानकी ध्वजासे बारह योजन दूरपर मुक्तिशिला है। कबीर भी ध्वजाके नामसे आनंद आनंदमें आ गये हैं। वह पद बाँचकर परमानन्द हुआ। प्रभातमें जल्दी उठा, उसी समयसे कोई अपूर्व ही आनन्द
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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