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· श्रीमद् राजचन्द्र ..
[पत्र १२६, १२७. १२६ ववाणीआ, द्वितीय भाद्र. वदी १२ शुक्र. १९४६ व्यासभगवान् कहते हैं कि
इच्छाद्वेषविहीनेन, सर्वत्र समचेतसा । . भगवद्भक्तियुक्तेन, माता भगवती गतिः॥ इच्छा और द्वेषके बिना सब जगह समदृष्टिसे देखनेवाले पुरुषोंने भगवान्की भक्तिसे युक्त होकर भागवती गतिको अर्थात् निर्वाणको प्राप्त किया है
आप देखें, इस वचनमें उन्होंने कितना अधिक परमार्थ भर दिया है ! प्रसंगवश इस वाक्यका स्मरण होनेसे इसे लिखा है। निरंतर साथ रहने देनेमें भगवान्का क्या नुकसान होता होगा! .
. आज्ञांकित
१२७ ववाणीआ, द्वितीय भाद. वदी१३ शनि. १९४६ नीचेकी बातोंका अभ्यास करते ही रहना:१. किसी भी प्रकारसे उदय आई हुई और उदयमें आनेवाली कषायोंको शान्त करना । २. सब प्रकारकी अभिलाषाकी निवृत्ति करते रहना । ३. इतने कालतक जो किया उस सबसे निवृत्त होओ, उसे करनेसे अब रुको । १. तुम परिपूर्ण सुखी हो, ऐसा मानो, और दूसरे प्राणियोंपर अनुकंपा करते रहो । ५. किसी एक सत्पुरुषको ढूँढ़ लो, और उसके कैसे भी वचन हों उनमें श्रद्धा रक्खो।
ये पाँचों प्रकारके अभ्यास अवश्य ही योग्यता प्रदान करते हैं । पाँचवेंमें फिर चारों समावेश हो जाते हैं, ऐसा अवश्य मानो।
___ अधिक क्या कहूँ ! किसी भी समय इस पाँचवेंको प्राप्त किये बिना इस परिभ्रमणका अन्त नहीं आयगा।
बाकीके चार इस पाँचवेको प्राप्त करनेमें सहायक हैं।
पाँचवे अभ्यासके सिवाय-उसकी प्राप्तिके सिवाय-मुझे दूसरा कोई निर्वाणका मार्ग नहीं सूझता, और सभी महात्माओंको भी ऐसा ही सूझा होगा ( सूझा है)।
___ अब तुम्हें जैसा योग्य मालूम हो वैसा करो। यह तुम सबकी इच्छा है, फिर भी अधिक इच्छा करो; जल्दी न करो। जितनी जल्दी उतनी ही कचाई, और जितनी कचाई उतनी ही खटाई, इस आपेक्षिक कयनको ध्यानमें रखना ।
प्रारब्धसे जीवित रायचन्दका यथायोग्य.