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पत्र ११६, ११७] विविध पत्र आदि संग्रह-२३याँ वर्ष
२०१ "कुछ भी हो, कितने ही दुःख क्यों न पड़ें, कितनी भी परिषह क्यों न सहन करनी पड़ें, कितने ही उपसर्ग क्यों न सहन करने पड़ें, कितनी ही व्याधियाँ क्यों न सहन करनी पड़ें, कितनी ही उपाधियाँ क्यों न आ पड़े, कितनी ही आधियाँ क्यों न आ पड़ें, चाहे जीवन-काल केवल एक समयका ही क्यों न हो, और कितने ही दुनिमित्त क्यों न हों, परन्तु ऐसा ही करना ।
हे जीव ! ऐसा किये बिना छुटकारा नहीं"इस तरह नेपथ्यमेंसे उत्तर मिलता है, और वह योग्य ही मालूम होता है।
क्षण क्षणमें पलटनेवाली स्वभाववृत्तिकी आवश्यकता नहीं; अमुक कालतक शून्यके सिवाय किसीकी भी आवश्यकता नहीं; यदि वह भी न हो तो अमुक कालतक संतोंके सिवाय किसीकी भी आवश्यकता नहीं; यदि वह भी न हो तो अमुक कालतक सत्संगके सिवाय किसीकी भी आवश्यकता नहीं, यदि वह भी न हो तो आर्याचरणके सिवाय किसीकी भी आवश्यकता नहीं; यदि वह भी न हो तो जिनभक्तिमें अति शुद्धभावसे लीन हो जानेके सिवाय किसीकी भी आवश्यकता नहीं; यदि वह भी न हो तो फिर माँगनेकी भी इच्छा नहीं । ( आर्याचरण आर्य पुरुषोंद्वारा किये हुए आचरण )।
समझे बिना आगम अनर्थकारक हो जाते हैं। सत्संगके बिना ध्यान तरंगरूप हो जाता है। संतके बिना अंतिम बातका अंत नहीं मिलता। लोक-संज्ञासे लोकके अनमें नहीं जा सकते । लोक-त्यागके बिना वैराग्यकी यथायोग्य स्थिति पाना दुर्लभ है।
११६ ववाणीआ, प्र. भाद्र. सुदी ७ शुक्र. सं. १९४६ बंबई इत्यादि स्थलोंमें सहनकी हुई उपाधिके कारण, तथा यहाँ आनेके बाद एकांत आदिके अभाव (न होना ), और दुष्टताकी अप्रियताके कारण जैसे बनेगा वैसे उस तरफ शीघ्र ही आऊँगा।
११७ ववाणीआ,प्र. भाद्रपद सुदी ११ भौम. १९४६ कुछ वर्ष हुए अंतःकरणमें एक महान् इच्छा रहा करती है। जिसे किसी भी स्थलपर नहीं कहा, जो नहीं कही जा सकी, नहीं कही जा सकती; और उसको कहनेकी आवश्यकता भी नहीं है। अत्यंत महान् परिश्रमसे ही उसमें सफलता मिल सकती है, तथापि उसके लिए जितना चाहिये उतना परिश्रम नहीं होता, यह एक आश्चर्य और प्रमादीपना है।।
__ यह इच्छा स्वाभाविक ही उत्पन्न हुई थी। जबतक वह योग्य रीतिसे पूर्ण न हो तबतक आत्मा समाधिस्थ होना नहीं चाहती, अथवा समाधिस्थ न हो सकेगी। यदि कभी अवसर आयेगा तो उस इच्छाकी छाया बतानेका प्रयत्न करूँगा।
इस इच्छाके कारण जीव प्रायः विडंबना-दशामें ही जीवन व्यतीत करता रहता है । यद्यपि वह विडंबना-दशा भी कल्याणकारक ही है; तथापि दूसरोंके प्रति उतनी ही कल्याणकारक होनेमें वह कुछ कमीवाली है।
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