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पत्र ११३, ११४] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
३. वचनका स्याद्वादपना ( निराग्रहपना)। १. कायाकी वृक्ष-दशा ( आहार विहारकी नियमितता)। अथवा सब संदेहोंकी निवृत्ति; सर्व भयका छूटना; और सर्व अज्ञानका नाश ।
संतोंने अनेक प्रकारसे शास्त्रोंमें उसका मार्ग बताया है; साधन बताये है; और योगादिसे उत्पन्न हुआ अपना अनुभव कहा है, फिर भी उससे यथायोग्य उपशमभाव आना दुर्लभ है । वह तो मार्ग है, परन्तु उसके प्राप्त करनेके लिये उपादानकी स्थिति बलवान होनी चाहिये । उपादानकी बलवान स्थिति होनेके लिये निरंतर सत्संग चाहिये, और वह नहीं है।
(२) शिशुवयमेंसे ही इस वृत्तिके उदय होनेसे किसी भी प्रकारका परभाषाका अभ्यास नहीं हो सका । अमुक संप्रदायके कारण शास्त्राभ्यास न हो सका । संसारके बंधनसे ऊहापोहाभ्यास भी न हो सका; और यह नहीं हो सका इसके लिये कैसा भी खेद या चिन्ता नहीं है, क्योंकि इनसे आत्मा और भी अधिक विकल्पमें पड़ जाती ( इस विकल्पकी बातको मैं सबके लिये नहीं कह रहा, परन्तु मैं केवल अपनी अपेक्षासे ही कहता हूँ); और विकल्प आदि क्लेशका तो नाश ही करनेकी इच्छा की थी, इसलिये जो हुआ वह कल्याणकारक ही हुआ; परन्तु अब जिस प्रकार महानुभाव वसिष्ठभगवान्ने श्रीरामको इसी दोषका विस्मरण कराया था, वैसा अब कौन करावे ? अर्थात् भाषाके अभ्यासके बिना भी शास्त्रका बहुत कुछ परिचय हुआ है, धर्मके व्यवहारिक ज्ञाताओंका भी परिचय हुआ है, तथापि इससे इस आत्माका आनंदावरण दूर हो सके, यह बात नहीं है; एक सत्संगके सिवाय और योग-समाधिके सिवाय उसका कोई उपाय नहीं ! अब क्या करें !
इतनी बात भी कहनेका कोई सत्पात्र स्थल न था । भाग्यके उदयसे आप मिले, जिनके रोम रोममें यही रुचिकर है। (३) कायाकी नियमितता।
वचनका स्याद्वादपना। मनकी उदासीनता। आत्माकी मुक्तता। -यही अन्तिम समझ है।
११४ ववाणीआ, प्रथम भाद्र. सुदी४, १९४६ आजके पत्रमें, मतांतरसे दुगुना लाभ होता है, ऐसा इस पयूषण पर्वको सम्यकदृष्टिसे देखनेपर मालूम हुआ । यह बात अच्छी लगी, तथापि यह दृष्टि कल्याणके लिये ही उपयोगी है । समुदायके कल्याणकी दृष्टिसे देखनेसे दो पर्युषणोंका होना दुःखदायक हैं । प्रत्येक समुदायमें मतांतर बढ़ने न चाहिये, किन्तु घटने ही चाहिये ।