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________________ पत्र ६१] विविध पत्र आदि संग्रह-२२वाँ वर्ष अच्छा, तो क्या देवोंकी दशाको ठीक समझें ! "निश्चय करनेके लिये चलो इन्द्रके अन्तःकरणमें प्रवेश करें।" तो चलो ( उस इन्द्रकी भव्यताने भूलमें डाल दिया। ) वह भी परम दुःखी था । बिचारेको च्युत होकर किसी वीभत्स स्थलमें जन्म लेना था, इसलिये वह खेद कर रहा था। उसमें सम्यग्दृष्टि नामकी देवी रहती थी। वह उसको उस खेदमें सांत्वना दे रही थी। इस महादुःखके सिवाय उसे और भी बहुतसे अव्यक्त दुःख थे। परन्तु ( नेपथ्य ) क्या संसारमें अकेला जड़ और अकेली आत्मा नहीं है ! उन्होंने मेरे इस आमंत्रणको स्वीकार ही नहीं किया। " जड़के ज्ञान नहीं है इसलिये वह बिचारा तुम्हारे इस आमंत्रणको कैसे स्वीकार कर सकता है ! सिद्ध ( एकात्मभावी ) भी तुम्हारे आमंत्रणको स्वीकार नहीं कर सकते । उसकी उन्हें कुछ भी परवा नहीं।" अरे! इतनी अधिक बेपरवाही ! उन्हें आमंत्रण तो स्वीकार करना ही चाहिये तुम क्या कहते हो! "परन्तु इन्हें आमंत्रण-अनामंत्रणसे कोई संबंध ही नहीं। वे परिपूर्ण स्वरूप-सुखमें विराजमान हैं "। इन्हें मुझे बताओ। एकदम-बहुत जल्दीसे । " उनका दर्शन बहुत दुर्लभ है। लो इस अंजनको आँज लो, घुसते ही उनके दर्शन हो जॉयगे।" अहो ! ये बहुत सुखी हैं। इन्हें भय भी नहीं, शोक भी नहीं, हास्य भी नहीं, वृद्धता भी नहीं, रोग भी नहीं, आधि भी नहीं, व्याधि भी नहीं, उपाधि भी नहीं, इत्यादि कुछ भी नहीं। परन्तु . . . . वे अनंतानंत सच्चिदानंद सिद्धिसे पूर्ण हैं । हम भी ऐसा ही होना चाहते हैं। "क्रम क्रमसे हो सकोगे"। वह क्रम बम हमें नहीं चाहिये, हमें तो तुरन्त ही वह पद चाहिये । "जरा शांत होओ; समता रक्खो और क्रमको अंगीकार करो, नहीं तो उस पदपर पहुँचनेकी संभावना नहीं है"। "हैं, वहाँ पहुँचना संभव नहीं" तुम अपने इस वचनको वापिस लो। वह क्रम शीघ्र बताओ और उस पदमें अभी तुरत ही भेजो । "बहुतसे मनुष्य आये हैं । उन्हें यहाँ बुलाओ। उनमेंसे तुम्हें क्रम मिल सकेगा" इच्छा की ही थी कि इतनेमें वे आ गये आप मेरे आमंत्रणको स्वीकारकर यहाँ चले आये इसके लिये मैं आप लोगोंका उपकार मानता हूँ। आप लोग सुखी हैं, क्या यह बात ठीक है! क्या आपका पद सुखयुक्त गिना जाता है ! एक वृद्ध पुरुषने कहा:-" तुम्हारे आमंत्रणको स्वीकार करना अथवा न करना ऐसा हमें कुछ भी बंधन नहीं है। हम सुखी हैं या दुःखी, यह बतानेके लिये भी हम यहाँ नहीं आये हैं। अपने
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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