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२२वाँ वर्ष ५७
बम्बई, वि. सं. १९४६ भाई ! इतना तो तुझे अवश्य करना चाहियेः
१. इस देहमें जो विचार करनेवाला बैठा है वह देहसे भिन्न है ? वह सुखी है या दुःखी ! यह याद कर ले।
२. तुझे दुःख तो होता ही होगा, और दुःखके कारण भी तुझे दृष्टिगोचर ही होते होंगे, फिर भी यदि कदाचित् न होते हों तो मेरे० किसी भागको पढ़ जाना, इससे सिद्धि हो जायगी । इसे दूर करनेका जो उपाय है वह केवल इतना ही है कि उससे बाह्याभ्यंतरकी आसक्तिरहित रहना।
३. उस आसक्तिसे रहित होनेके बाद कुछ और ही दशाका अनुभव होता है, यह मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ। - १. उस साधनके लिये सर्वसंग-परित्यागी होनेकी आवश्यकता है । निग्रंथ सद्गुरुके चरणमें जाकर पड़ना योग्य है। ... ५. जिस भावसे चढ़ा जाय उस भावसे सदाकाल रहनेका सबसे पहिले निश्चय कर । यदि तुझे पूर्वकर्म बलवान लगते हों तो अत्यागी अथवा देशत्यागी ही रह, किन्तु उस वस्तुको भूलना मत ।
६. सबसे पहिले जैसे बने तैसे तू अपने जीवनको जान । जाननेकी ज़रूरत इसलिये है जिससे तुझे भविष्य-समाधि हो सके । इस समय अप्रमादी होकर रहना ।
७. इस आयुके मानसिक आत्मोपयोगको केवल वैराग्यमें रख ।
८. जीवन बहुत छोटा है, उपाधि बहुत है, और उसका त्याग न हो सकता हो तो नीचेकी बातें पुनः पुनः लक्षमें रखः
१ उसी वस्तुकी अभिलाषा रख । २ संसारको बंधन मान । ३ पूर्वकर्म नहीं हैं, ऐसा मानकर प्रत्येक धर्मका सेवन करता जा; फिर भी .
यदि पूर्वकर्म दुःख दें तो शोक नहीं करना । ४ जितनी देहकी चिंता रखता है उतनी नहीं, किन्तु उससे अनंतगुनी अधिक
आत्माकी चिंता रख, क्योंकि एक भवमें अनंतभव दूर करने हैं। ५ यदि तुझसे कुछ धारण न किया जा सके तो सुननेका अभ्यासी बन । ६ जिसमेंसे जितना कर सके उतना कर । ७ परिणामिक विचारवाला बन । ८ अनुत्तरवासी होकर रह। ९ प्रतिसमय अंतिम उद्देश्यको मत भूल जाना; यही अनुरोध है, और यही धर्म है।