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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४९, ५० है तो संकल्प-विकल्प, राग-द्वेषको छोड़ दे, और उसके छोड़नेमें यदि तुझे कोई बाधा मालूम हो तो उसे कह । वह उसे स्वयं मान जायगी; और उसे अपने आप छोड़ देगी। जहाँ कहींसे भी रागद्वेषरहित होना मेरा धर्म है, और उसका तुम्हें भी अब उपदेश करता हूँ। परस्पर मिलनेपर यदि तुम्हें कुछ आत्मत्व-साधना बतानी होगी तो बताऊँगा । बाकी तो जो मैंने ऊपर कहा है वही धर्म है। और उसीका उपयोग रखना । उपयोग ही साधना है। इतना तो और कह देना चाहता हूँ कि विशेष साधना तो केवल सत्पुरुषोंके चरणकमल ही हैं। ____ आत्मभावमें सब कुछ रखना । धर्मध्यानमें उपयोग रखना । जगत्के किसी भी पदार्थका, सगे संबंधीका, कुटुंबी और मित्रका कुछ भी हर्ष-शोक करना योग्य नहीं है। हम परमशांति पदकी इच्छा करें यही हमारा सर्वमान्य धर्म है, और यह इच्छा करते करते ही वह मिल जायगा, इसके लिये निश्चित रहो। मैं किसी गच्छमें नहीं, परन्तु आत्मामें हूँ, यह मत भूलना। जिसका देह धर्मोपयोगके लिये ही है ऐसी देहको रखनेका जो प्रयत्न करता है वह भी धर्म ही है। वि. रायचंद. ४९ मोहमयी, आसोज वदी १० शनि. १९४५ दूसरी किसी बातकी खोज न कर, केवल एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमें सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह । फिर यदि तुझे मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना।। सत्पुरुष वही है जो निशदिन अपनी आत्माके उपयोगमें लीन रहता है और जिसका कथन ऐसा है कि जो शास्त्रमें नहीं मिलता, और जो सुनने में नहीं आया, तो भी जिसका अनुभव किया जा सकता है; और जिसमें अंतरंग स्पृहा नहीं, ऐसा जिसका गुप्त आचार है; बाकीका तो ऐसा विलक्षण है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। और इस प्रकार किये बिना तेरा त्रिकालमें भी छुटकारा होनेवाला नहीं। यह अनुभवपूर्ण वचन है, इसे तू सर्वथा सत्य मान । एक सत्पुरुषको प्रसन्न करनेमें, उसकी सब इच्छाओंकी प्रशंसा करनेमें, उसे ही सत्य माननेमें यदि सारी जिन्दगी भी निकल गई तो अधिकसे अधिक पन्द्रह भवमें तू अवश्य मोक्ष जायगा। वि. सं. १९४५ मुखकी सहेली है अकेली उदासीनता अध्यात्मनी जननी ते उदासीनता । मुझे छोटीसी उमरसे ही तत्त्वज्ञानका बोध होना पुनर्जन्मकी सिद्धि करता है, फिर जीवके गमन और आगमनके खोज करनेकी क्या आवश्यकता है ! ॥१॥ ५० लघुवयथी अद्भुत थयो, तत्वशाननो बोष; एज सूचने एम के, गति आगति का शोध ॥१॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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