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________________ ૨૪૮ श्रीमद् राजचन्द्र [३७ संयति मुनिधर्म ६. कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ! कैसे बैठे ! कैसे शयन करे ? कैसे आहार ले ! कैसे बोले जिससे पापकर्म न बँधे ! . ७. यतनासे चले; यतनासे खड़ा रहे; यतनासे बैठे; यतनासे शयन करे; यतनासे आहार ले; यतनासे बोले; तो पापकर्मका बँध नहीं होगा। ८. सब जीवोंको अपनी आत्माके समान देखे; मन, वचन और कायासे सम्यक् प्रकारसे सब जीवोंको देखे, प्रीति (1) आस्रवसे आत्माका दमन करे तो पापकर्म न बँधे । ९. उसके सबसे पहिले स्थानमें महावीरदेवने सब आत्माओंकी संयमरूप, निपुण अहिंसाका मननपूर्वक विधान किया है। १०. जगत्में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं उनका जानकर अथवा अनजाने स्वयं घात न करे, और न उनका दूसरोंके द्वारा घात करावे । ११. सब जीव जीवित रहनेकी इच्छा करते हैं, कोई मरणकी इच्छा नहीं करता। इस कारणसे निग्रंथको प्राणियोंका भयंकर वध छोड़ देना चाहिये। १२. अपने और दूसरेके लिये क्रोधसे अथवा भयसे, जिससे प्राणियोंको कष्ट हो ऐसा असत्य स्वयं न बोले, और न दूसरोंसे बुलवावे । १३. मृषावादका सब सत्पुरुषोंने निषेध किया है। वह प्राणियोंको अविश्वास उत्पन्न करता है इसलिये उसका त्याग करे। . १४. सचित्त अथवा अचित्त थोड़ा अथवा बहुत यहाँतक कि दाँत कुरेदने तकके लिये भी एक सीकमात्र परिग्रहको भी बिना माँगे न ले। १५. संयति पुरुष स्वयं विना माँगी हुई वस्तुका ग्रहण न करे, दूसरोंसे नहीं लिवावे, तथा अन्य लेनेवालेका अनुमोदन भी न करे । १६. इस जगत्में मुनि महारौद्र, प्रमादके रहनेका स्थान, और चारित्रको नाश करनेवाले ऐसे अब्रह्मचर्यका आचरण न करे । १७. निग्रंथ अधर्मके मूल और महादोषोंकी जन्मभूमि ऐसे मैथुनसंबंधी आलाप-प्रलापका त्याग कर दे। १८. ज्ञातपुत्रके वचनमें प्रीति रखनेवाले मुनि सेंधा नमक, नमक, तेल, घी, गुड़, वगैरह आहारके पदार्थोंको रात्रिमें बासी न रक्खें । जो ऐसे किसी पदार्थोंको रात्रिमें बासी रखना चाहते हैं वे मुनि नहीं हैं किन्तु गृहस्थ हैं । . १९. लोभसे तृणका भी स्पर्श न करे। २०. साधु वन, पात्र, कम्बल और रजोहरणको भी संयमकी रक्षाके लिये ही धारण करे, नहीं तो उनका भी त्याग ही करे । २१. जो वस्तु संयमकी रक्षाके लिये रखनी पड़े उसे परिग्रह नहीं कहते, ऐसा छह कायके रक्षक ज्ञातपुत्रने कहा है, परन्तु मूर्छा ही परिग्रह है ऐसा पूर्व महर्षियोंने कहा है। १ दशवकालिक सूत्रके मूल पाठमें प्रीति आसव 'के स्थानपर 'पिहियास्सव' (पिहित आसव) पाठ मिलता है । पिहित आसवका अर्थ सब प्रकारके आसवोंका निरोध करना होता है। अनुवादक ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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