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. श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३४, ३५, ३६ उसके बाद इस पृथ्वीपर ही ईषत् प्राग्भारा अर्थात् सिद्धि है, यह बात सबशास्त्रोंको मान्य है। (मनन करना।) यह कथन त्रिकालसिद्ध है।
मोरबी, चैत्र वदी ९, १९४५ कर्मगति विचित्र है । निरंतर मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा भावना रखना ।
मैत्री अर्थात् सब जगत्से निर्वैर बुद्धि प्रमोद अर्थात् किसी भी आत्माका गुण देखकर हर्षित होना; करुणा अर्थात् संसार-तापसे दुखित आत्माके ऊपर दुःखसे अनुकंपा करना; और उपेक्षा अर्थात् निस्पृह भावसे जगत्के प्रतिबंधको भूलकर आत्म-हितमें लगना । ये भावनायें कल्याणमय और पात्रताकी देनेवाली हैं।
मोरबी, चैत्र वदी १०, १९४५ चि०
तुम्हारे दोनोंके पत्र मिले । स्याद्वाददर्शनका स्वरूप जाननेके लिये तुम्हारी परम जिज्ञासासे मुझे संतोष हुआ है । परन्तु यह एक बात अवश्य स्मरणमें रखना कि शास्त्रमें मार्ग कहा है, मर्म नहीं कहा । मर्म तो सत्पुरुषकी अंतरात्मामें ही है, इसलिये मिलनेपर ही विशेष चर्चा की जा सकेगी। __धर्मका रास्ता सरल, स्वच्छ और सहज है, परन्तु उसे विरली आत्माओंने ही पाया है, पाती हैं और पावेंगी।
जिस काव्यके लिये तुमने लिखा है उस काव्यको प्रसंग पाकर भेजेंगा । दोहोंके अर्थके लिये भी ऐसा ही समझो । हालमें तो इन चार भावनाओंका ध्यान करनाः
मैत्री–सर्व जगत्के ऊपर निर्वैर बुद्धि. . अनुकंपा—उनके दुःखके ऊपर करुणा. प्रमोद-आत्म-गुण देखकर आनंद.
उपेक्षा--निस्पृह इससे पात्रता आयगी।
३६ ववाणीआ, वैशाख सुदी १,. १९४५ तुम्हारी शरीरसंबंधी शोचनीय स्थिति जानकर व्यवहारकी अपेक्षा खेद होता है । मेरे ऊपर अतिशय भावना रखकर चलनेकी तुम्हारी इच्छाको मैं रोक नहीं सकता, परन्तु ऐसी भावना रखनेके कारण यदि तुम्हारे शरीरको थोड़ीसी भी हानि हो तो ऐसा न करो। तुम्हारा मेरे ऊपर राग रहता है, इस कारण तुम्हारे ऊपर राग रखनेकी मेरी इच्छा नहीं है। परन्तु तुम एक धर्मपात्र जीव हो और मुझे धर्मपात्रोंके ऊपर कुछ विशेष अनुराग उत्पन्न करनेकी परम इच्छा है, इस कारण किसी भी रीतिस तुम्हारे ऊपर कुछ थोडीसी इच्छा है।