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श्रीमद् राजचन्द्र
[भरतेश्वर
सकती है ? अहो ! मैं बहुत भूल गया । मिथ्या मोहमें फंस गया । वे नवयौवनायें, वे माने हुए कुलदीपक पुत्र, वह अतुल लक्ष्मी, वह छह खंडका महान् राज्य–मेरा नहीं । इसमेंका लेशमात्र भी मेरा नहीं । इसमें मेरा कुछ भी भाग नहीं। जिस कायासे मैं इन सब वस्तुओंका उपभोग करता हूँ, जब वह भोग्य वस्तु ही मेरी न हुई तो मेरी दूसरी मानी हुई वस्तुयें-स्नेही, कुटुंबी इत्यादि-फिर क्या मेरे हो सकते हैं ? नहीं, कुछ भी नहीं। इस ममत्वभावकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं ! यह पुत्र, यह मित्र, यह कलत्र, यह वैभव और इस लक्ष्मीको मुझे अपना मानना ही नहीं ! मैं इनका नहीं; और ये मेरे नहीं ! पुण्य आदिको साधकर मैंने जो जो वस्तुएँ प्राप्त की वे वे वस्तुयें मेरी न हुई, इसके समान संसारमें दूसरी और क्या खेदकी बात है ! मेरे उन पुण्यत्वका क्या यही परिणाम है ! अन्तमें इन सबका वियोग ही होनेवाला है न ! पुण्यत्वके इस फलको पाकर इसकी वृद्धिके लिये मैंने जो जो पाप किये उन सबको मेरी आत्माको ही भोगना है न ? और वह भी क्या अकेले ही ? क्या इसमें कोई भी साथी न होगा! नहीं नहीं। ऐसा अन्यत्वभाववाला होकर भी मैं ममत्वभाव बताकर आत्माका अहितैषी होऊँ और इसको रौद्र नरकका भोक्ता बनाऊँ, इसके समान दूसरा और क्या अज्ञान है ! ऐसी कौनसी भ्रमणा है ! ऐसा कौनसा अविवेक है ! प्रेसठ शलाका पुरुषों से मैं भी एक गिना जाता है, फिर भी मैं ऐसे कृत्यको दूर न कर सकूँ और प्राप्त की हुई प्रभुताको भी खो बैठें, यह सर्वथा अनुचित है । इन पुत्रोंका, इन प्रमदाओंका, इस राज-वैभवका, और इन वाहन आदिके सुखका मुझे कुछ भी अनुराग नहीं ! ममत्व नहीं !
राजराजेश्वर भरतके अंतःकरणमें वैराग्यका ऐसा प्रकाश पड़ा कि उनका तिमिर-पट दूर हो गया। उन्हें शुक्लध्यान प्राप्त हुआ, जिससे समस्त कर्म जलकर भस्मीभूत हो गये !! महादिव्य और सहस्रकिरणोंसे भी अनुपम कांतिमान केवलज्ञान प्रगट हुआ । उसी समय इन्होंने पंचमुष्टि केशलोंच किया । शासनदेवीने इन्हें साधुके उपकरण प्रदान किये और वे महावीतरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर चतुर्गति, चौबीस दंडक, तथा आधि, व्याधि और उपाधिसे विरक्त हुए, चपल संसारके सम्पूर्ण सुख विलासोंसे इन्होंने निवृत्ति प्राप्त की; प्रिय अप्रियका भेद दूर हुआ, और वे निरन्तर स्तवन करने योग्य परमात्मा हो गये।
प्रमाणशिक्षाः-इस प्रकार छह खंडके प्रभु, देवोंके देवके समान, अतुल साम्राज्य लक्ष्मीके भोक्ता, महाआयुके धनी, अनेक रत्नोंके धारक राजराजेश्वर भरत आदर्श-भुवनमें केवल अन्यत्वभावनाके उत्पन्न होनेसे शुद्ध वैराग्यवान् हुए।
भरतेश्वरका वस्तुतः मनन करने योग्य चरित्र संसारकी शोकार्तता और उदासीनताका पूरा पूरा भाव, उपदेश और प्रमाण उपस्थित करता है । कहो! इनके घर किस बातकी कमी थी! न इनके घर नवयौवना स्त्रियोंकी कमी थी, न राज-ऋद्धिकी कमी थी, न पुत्रोंको समुदायकी कमी थी, न कुटुंब परिवारकी कमी थी, न विजय-सिद्धिकी कमी थी, न नवनिधिकी कमी थी, न रूपकांतिकी कमी थी और न यशःकीर्ति की ही कमी थी।
. इस तरह पहले कही हुई उनकी ऋद्धिका पुनः स्मरण कराकर प्रमाणके द्वारा हम शिक्षा-प्रसादी यही देना चाहते हैं कि भरतेश्वरने विवेकसे अन्यस्वके स्वरूपको देखा, जाना, और सर्प-कंचुकवत् संसारका