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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [नमिराजर्षि होकर सर्वोच्च सिद्धगतिको प्राप्त करेगा । इस तरह स्तुति करते करते, प्रदक्षिणा करते हुए श्रद्धा-भक्तिसे उसने उस ऋषिके चरणकमलोंको वन्दन किया। तत्पश्चात् वह सुंदर मुकुटवाला शकेन्द्र आकाश-मार्गसे चला गया। प्रमाणशिक्षा:-विपके रूपमें नमिराजाके वैराग्यकी परीक्षा करनेमें इन्द्रने क्या न्यूनता की है ! कुछ भी नहीं की । संसारकी जो लोलुपतायें मनुष्यको चलायमान करनेवाली हैं उन सब लोलुपताओंके विषयमें महागौरवपूर्ण प्रश्न करनेमें उस इन्द्रने निर्मल भावनासे प्रशंसायोग्य चातुर्य दिखाया है, तो भी देखनेकी बात तो यही है कि नमिराज अंततक केवल कंचनमय रहे हैं। शुद्ध और अखंड वैराग्यके वेगमें अपने प्रवाहित होनेको इन्होंने अपने उत्तरोंमें प्रदर्शित किया है। हे विप्र! तू जिन वस्तुओंको मेरी कहलवाता है वे वस्तुयें मेरी नहीं हैं। मैं अकेला ही हूँ, अकेला जानेवाला हूँ, और केवल प्रशंसनीय एकत्वको ही चाहता हूँ। इस प्रकारके रहस्यमें नमिराज अपने उत्तरको और वैराग्यको दृढ़ बनाते गये हैं। ऐसी परम प्रमाणशिक्षासे भरा हुआ उस महर्षिका चरित्र है । दोनों महात्माओंका परस्परका संवाद शुद्ध एकत्वको सिद्ध करनेके लिये तथा अन्य वस्तुओंके त्याग करनेके उपदेशके लिये यहाँ कहा गया है । इसे भी विशेष दृढ़ करनेके लिये नमिराजको एकत्वभाव किस तरह प्राप्त हुआ, इस विषयमें नमिराजके एकत्वसंबंधको संक्षेपमें यहाँ नाचे देते हैं : ये विदेह देश जैसे महान् राज्यके अधिपति थे । ये अनेक यौवनवंती मनोहारिणी स्त्रियोंके समुदायसे घिरे हुए थे। दर्शनमोहिनीके उदय न होनेपर भी वे संसार-लुब्ध जैसे दिखाई देते थे। एक बार इनके शरीरमें दाहज्वर रोगकी उत्पत्ति हुई। मानों समस्त शरीर जल रहा हो ऐसी जलन समस्त शरीरमें व्याप्त हो गई । रोम रोममें हज़ार बिच्छुओंके डंसने जैसी वेदनाके समान दुःख होने लगा। वैध-विधामें प्रवीण पुरुषोंके औषधोपचारका अनेक प्रकारसे सेवन किया; परन्तु वह सब वृथा हुआ। यह व्याधि लेशमात्र भी कम न होकर अधिक ही होती गई । सम्पूर्ण औषधियाँ दाह-ज्वरकी हितैषी ही होती गई । कोई भी औषधि ऐसी न मिली कि जिसे दाहज्वरसे कुछ भी द्वेष हो। निपुण वैध हताश हो गये, और राजेश्वर भी इस महान्याधिसे तंग आ गये। उसको दूर करने वाले पुरुषकी खोज चारों तरफ होने लगी। अंतमें एक महाकुशल वैद्य मिला, उसने मलयागिरि चंदनका लेप करना बताया । रूपवन्ती रानियाँ चंदन घिसनेमें लग गई । चंदन घिसनेसे प्रत्येक रानीके हाथमें पहिने हुए कंकणोंके समुदायसे खलभलाहट होने लगा। मिथिलेशके अंगमें दाहज्वरकी एक असह्य वेदना तो थी ही और दूसरी वेदना इन कंकणोंके कोलाहलसे उत्पन्न हो गई। जब यह खलभलाहट उनसे सहन न हो सका तो उन्होंने रानियोंको आज्ञा की कि चंदन घिसना बन्द करो। तुम यह क्या शोर करती हो ! मुझसे यह सहा नहीं जाता । मैं एक महान्याधिसे तो ग्रसित हूँ ही, और दूसरी व्याधिके समान यह कोलाहल हो रहा है, यह असह्य है। सब रानियोंने केवल एक एक कंकणको मंगलस्वरूप रखकर बाकी कंकणोंको निकाल डाला इससे होता हुआ खलभलाहट शांत हो गया । नमिराजने रानियोंसे पूछा, क्या तुमने चंदन घिसना बन्द कर दिया ! रानियोंने कहा कि नहीं, केवल कोलाहल शांत करनेके लिये हम एक एक कंकणको रखकर बाकी कंकणोंका परित्याग करके चंदन
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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