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________________ तत्त्वावबोध] मोक्षमाला इसमें समस्त सृष्टिका ज्ञान आ जाता है, परन्तु उसे यथार्थ समझनेकी शक्ति चाहिये । उन्होंने इस कथनका प्रमाण माँगा । मैंने आठ कर्मोके नाम लिये । इसके साथ ही यह सूचित किया कि इनके सिवाय इससे भिन्न भावको दिखानेवाला आप कोई नौंवा कर्म ढूंढ़ निकाले; पाप और पुण्य प्रकृतियोंके नाम लेकर मैंने कहा कि आप इनके सिवाय एक भी अधिक प्रकृति ढूँढ़ दें। यह कहनेपर अनुक्रमसे बात चली। सबसे पहले जीवके भेद कहकर मैंने पूछा कि क्या इनमें आप कुछ न्यूनाधिक कहना चाहते हो ! अजीव द्रव्यके भेद बताकर पूछा कि क्या आप इससे कुछ विशेष कहते हो? इसी प्रकार जब नवतत्त्वके संबंधमें बातचीत हुई तो उन्होंने थोड़ी देर विचार करके कहा, यह तो महावीरकी कहनेके अद्भुत चमत्कृति है कि जीवका एक भी नया भेद नहीं मिलता । इसी तरह पाप पुण्य आदिकी एक भी विशेष प्रकृति नहीं मिलती; तथा नौंवा कर्म भी नहीं मिलता। ऐसे ऐसे तत्वज्ञानके सिद्धांत जैनदर्शनमें हैं, यह बात मेरे ध्यानमें न थी, इसमें समस्त सृष्टिका तत्त्वज्ञान कुछ अंशोंमें अवश्य आ सकता है। ८७ तत्वावबोध इसका उत्तर इस ओरसे यह दिया गया कि अभी जो आप इतना कहते हैं वह तभीतक कहते हैं जब तक कि जैनधर्मके तत्त्व-विचार आपके हृदयमें नहीं आये, परन्तु मैं मध्यस्थतासे सत्य कहता हूँ कि इसमें जो विशुद्ध ज्ञान बताया गया है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है; और सर्व मतोंने जो ज्ञान बताया है वह महावीरके तत्त्वज्ञानके एक भागमें आ जाता है । इनका कथन स्याद्वाद है, एकपक्षीय नहीं। आपने कहा कि कुछ अंशमें सृष्टिका तत्त्वज्ञान इसमें अवश्य आ सकता है, परन्तु यह मिश्रवचन है । हमारे समझानेकी अल्पज्ञतासे ऐसा अवश्य हो सकता है परन्तु इससे इन तत्त्वोंमें कोई अपूर्णता है, ऐसी बात तो नहीं है। यह कोई पक्षपातयुक्त कथन नहीं। विचार करनेपर समस्त सृष्टिमेंसे इनके सिवाय कोई दसवाँ तत्त्व खोज करने पर कभी भी मिलनेवाला नहीं । इस संबंध प्रसंग आनेपर जब हम लोगोंमें बातचीत और मध्यस्थ चर्चा होगी तब समाधान होगा। उत्तरमें उन्होंने कहा कि इसके ऊपरसे मुझे यह तो निस्सन्देह है कि जैनदर्शन एक अद्भुत दर्शन है । श्रेणीपूर्वक आपने मुझे नव तत्वोंके कुछ भाग कहे हैं इससे मैं यह बेधड़क कह सकता हूँ कि महावीर गुप्तभेदको पाये हुए पुरुष थे । इस प्रकार थोडीसी बातचीत करके " उप्पन्नेवा" “विगमे वा" "धुवेइ वा" यह लब्धिवाक्य उन्होंने मुझे कहा । यह कहनेके पश्चात् उन्होंने बताया कि इन शब्दोंके सामान्य अर्थमें तो कोई चमत्कृति दिखाई नहीं देती । उत्पन्न होना, नाश होना, और अचलता यही इन तीन शब्दोंका अर्थ है । परन्तु श्रीमान् गणधरोंने तो ऐसा उल्लेख किया है कि इन वचनोंके गुरुमुखसे श्रवण करनेपर पहलेके भाविक शिष्योंको द्वादशांगीका आशयपूर्ण ज्ञान हो जाता था। इसके लिये मैंने कुछ विचार करके देखा भी, तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि ऐसा होना असंभव है। क्योंकि अत्यन्त सूक्ष्म माना दुआ सद्धांतिक-ज्ञान इसमें कहाँसे समा सकता है। इस संबंधमें क्या भाप कुछ लक्ष पहुँचा सकेंगे!
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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