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________________ शानके संबंधमें दो शब्द] · मोक्षमाला एक भी नहीं वहाँ शान-प्राप्ति भी किसकी हो ? इसलिये मानव-देहके साथ साथ सर्वज्ञके वचनामृतकी प्राप्ति और उसकी श्रद्धा भी साधनरूप हैं । सर्वज्ञके वचनामृत अकर्मभूमि अथवा केवल अनार्यभूमिम नहीं मिलते, तो वहाँ मानव-देह किस कामका ? इसलिये कर्मभूमि और उसमें भी आर्यभूमि - यह भी साधनरूप है । सत्त्वकी श्रद्धा उत्पन्न होनेके लिये और ज्ञान होनेके लिये निम्रन्थ गुरुकी आवश्यकता है । द्रव्यसे जो कुल मिथ्यात्वी है, उस कुलमें जन्म होना भी आत्म-ज्ञानकी प्राप्तिमें हानिरूप ही होता है। क्योंकि धर्ममतभेद अत्यन्त दुःखदायक है । परंपरासे पूर्वजोंके द्वारा ग्रहण किये हुए दर्शन ही सत्य मालूम होने लगते हैं । इससे भी आत्म-ज्ञान रुकता है । इसलिये अच्छा कुल भी आवश्यक है । यह सब प्राप्त करने जितना भाग्यशाली होनेमें सत्पुण्य अर्थात् पुण्यानुबंधी पुण्य इत्यादि उत्तम साधन हैं। यह दूसरा साधन भेद कहा। ३. यदि साधन हैं तो क्या उनके अनुकूल देश और काल है, इस तीसरे भेदका विचार करें। भरत, महाविदेह इत्यादि कर्मभूमि और उनमें भी आर्यभूमि देशरूपसे अनुकूल हैं । जिज्ञासु भव्य ! तुम सब इस समय भरतमें हो, और भारत देश अनुकूल है । काल भावकी अपेक्षासे मति और श्रुतज्ञान प्राप्त कर सकनेकी अनुकूलता भी है । क्योंकि इस दुःषम पंचमकालमें परमावधि, मनःपर्यव, और केवल ये पवित्र ज्ञान परम्परा आम्नायके अनुसार विच्छेद हो गये हैं। सारांश यह है कि कालकी परिपूर्ण अनुकूलता नहीं। ४. देश, काल आदि यदि कुछ भी अनुकूल हैं तो वे कहाँतक हैं ? इसका उत्तर यह है कि अवशिष्ट सैद्धांतिक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, सामान्य मतसे ज्ञान, कालकी अपेक्षासे इक्कीस हजार वर्ष रहेगा; इनमें से अढाई हज़ार वर्ष बीत गये, अब साड़े अठारह हजार वर्ष बाकी हैं, अर्थात् पंचमकालकी पूर्णतातक कालकी अनुकूलता है । इस कारणसे देश और काल अनुकूल हैं। ७९ ज्ञानके संबंधमें दो शब्द (३) अब विशेष विचार करें। १. आवश्यकता क्या है ? इस मुख्य विचारपर ज़रा और गंभीरतासे विचार करें तो मालूम होगा कि मुख्य आवश्यकता तो अपनी स्वरूप-स्थितिकी श्रेणी चढ़ना है । अनंत दुःखका नाश, और दुःखके नाशसे आत्माके श्रेयस्कर सुखकी सिद्धि यह हेतु है। क्योंकि आत्माको सुख निरन्तर ही प्रिय है। परन्तु यह सुख यदि स्वस्वरूपक सुख हो तभी प्रिय है। देश कालकी अपेक्षासे श्रद्धा ज्ञान इत्यादि उत्पन्न करनेकी आवश्यकता, और सम्यग् भावसहित उच्चगति, वहाँसे महाविदेहमें मानवदेहमें जन्म, वहाँ सम्यग् भावकी और भी उन्नति, तत्त्वज्ञानकी विशुद्धता और वृद्धि, अन्तमें परिपूर्ण आत्मसाधन, ज्ञान और उसका सत्य परिणाम, सम्पूर्णरूपसे सब दुःखोंका अभाव अर्थात् अखंड, अनुपम, अनंत शाश्वत, पवित्र मोक्षकी प्राप्ति-इन सबके लिये ज्ञानकी आवश्यकता है। २. ज्ञानके कितने भेद हैं, तत्संबंधी विचार कहता हूँ । इस ज्ञानके अनंत भेद हैं; परन्तु सामान्य दृष्टिसे समझनेके लिये सर्वज्ञ भगवान्ने मुख्य पाँच भेद कहे हैं, उन्हें ज्यों का त्यों कहता
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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