SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मके मतभेद ] मोक्षमाला उन्होंने जिस पक्षको लिया, उसमें मुख्य एकान्तवादको लिया । भक्ति, विश्वास, नीति, ज्ञान, क्रिया आदि एक पक्षको ही विशेषरूपसे लिया। इस कारण दूसरे मानने योग्य विषयोंको उन्होंने दूषित सिद्ध किये । फिर जिन विषयोंका उन्होंने वर्णन किया, उन विषयोंको उन्होंने कुछ सम्पूर्ण भावभेदसे जाना न था। परन्तु अपनी बुद्धिके अनुसार उन्होंने बहुत कुछ वर्णन किया। तार्किक सिद्धांत दृष्टांत आदिसे सामान्य बुद्धिवालोंके अथवा जड़ मनुष्योंके आगे उन्होंने सिद्ध कर दिखाया । कीर्ति, लोक-हित अथवा भगवान् मनवानेकी आकांक्षा इनमेंसे कोई एक भी इनके मनकी भ्रमणा होनेके कारण उन्होंने अत्युम उद्यम आदिसे विजय पायी । बहुतसोंने श्रृंगार और लोकप्रिय साधनोंसे मनुष्यके मनको हरण किया । दुनियाँ मोहमें तो वैसे ही डूबी पड़ी है, इसलिये इस इष्टदर्शनसे भेडरूप होकर उन्होंने प्रसन्न होकर उनका कहना मान लिया । बहुतोंने नीति तथा कुछ वैराग्य आदि गुणोंको देखकर उस कथनको मान्य रक्खा । प्रवर्तककी बुद्धि उन लोगोंकी अपेक्षा विशेष होनेसे उनको पीछेसे भगवानरूप ही मान लिया। बहुतोंने वैराग्यसे धर्ममत फैलाकर पछिसे बहुतसे सुखशील साधनोंका उपदेश दाखिल कर अपने मतकी वृद्धि की। अपना मत स्थापन करनेकी महान् भ्रमणासे और अपनी अपूर्णता इत्यादि किसी भी कारणसे उन्हें दूसरेका कहा हुआ अच्छा नहीं लगा इसलिये उन्होंने एक जुदा ही मार्ग निकाला । इस प्रकार अनेक मतमतांतरोंकी जाल उत्पन्न होती गई । चार पाँच पीढ़ियोंतक किसीका एक धर्ममत रहा, पीछेसे वही कुल-धर्म हो गया । इस प्रकार जगह जगह होता गया। ६० धर्मके मतभेद __ यदि एक दर्शन पूर्ण और सत्य न हो तो दूसरे धर्ममतको अपूर्ण और असत्य किसी प्रमाणसे नहीं कहा जा सकता । इस कारण जो एक दर्शन पूर्ण और सत्य है, उसके तत्त्व प्रमाणसे दूसरे मतोंकी अपूर्णता और एकान्तिकता देखनी चाहिये । इन दूसरे धर्ममतोंमें तत्त्वज्ञानका यथार्थ सूक्ष्म विचार नहीं है। कितने ही जगत्कर्ताका उपदेश करते हैं, परन्तु जगत्कर्ता प्रमाणसे सिद्ध नहीं हो सकता । बहुतसे ज्ञानसे मोक्ष होता है, ऐसा मानते हैं, वे एकांतिक है । इसी तरह क्रियासे मोक्ष होता है, ऐसा कहनेवाले भी एकांतिक हैं। ज्ञान और क्रिया इन दोनोंसे मोक्ष माननेवाले उसके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानते और ये इन दोनोंके भेदको श्रेणीबद्ध नहीं कह सके इसीसे इनकी सर्वज्ञताकी कमी दिखाई दे जाती है । ये धर्ममतोंके स्थापक सद्देवतत्त्वमें कहे हुए अठारह दूषणोंसे रहित न थे, ऐसा इनके उपदेश किये हुए शास्त्र अथवा चरित्रोंपरसे भी तत्त्वदृष्टि से देखनेपर दिखाई देता है । कई एक मतोंमें हिंसा, अब्रह्मचर्य इत्यादि अपवित्र आचरणका उपदेश है, वे तो स्वभावतः अपूर्ण और सरागीद्वारा स्थापित किये हुए दिखाई देते हैं। इनमेंसे किसीने सर्वव्यापक मोक्ष, किसीने शून्यरूप मोक्ष, किसीने साकार मोक्ष और किसीने कुछ कालतक रहकर पतित होनेरूप मोक्ष माना है। परन्तु इसमेंसे कोई भी बात उनकी सप्रमाण सिद्ध नहीं हो सकती । निस्पृही तत्त्ववेत्ताओंने इनके विचारोंका अपूर्णपना दिखाया है, उसे यथास्थित जानना उचित है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy