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________________ श्रीमद राजचन्द्र [समापना माता पिताका विनय करके संसारी कामोंमें आत्म-हितका ध्यान न भूल सकें, इस तरह व्यवहारिक कार्योंमें प्रवृत्ति करनी चाहिये । स्वयं भोजन करनेसे पहले सत्पात्रको दान देनेकी परम आतुरता रखकर वैसा योग मिलनेपर यथोचित प्रवृत्ति करनी चाहिये। आहार विहार आदिमें नियम सहित प्रवृत्ति करनी चाहिये । सत् शास्त्रके अभ्यासका नियमित समय रखना चाहिये । सायंकालमें उपयोगपूर्वक संध्यावश्यक करना चाहिये। निद्रा नियमितरूपसे लेना चाहिये। सोनेके पहले अठारह पापस्थानक, बारह व्रतोंके दोष, और सब जीवोंको क्षमाकर, पंचपरमेष्ठीमंत्रका स्मरणकर समाधिपूर्वक शयन करना चाहिये । ये सामान्य नियम बहुत मंगलकारी हैं, इन्हें यहाँ संक्षेपमें कहा है। विशेष विचार करनेसे और तदनुसार प्रवृत्ति करनेसे वे विशेष मंगलदायक और आनन्दकारक होंगे। ५६क्षमापना हे भगवन् ! मैं बहुत भूला, मैंने आपके अमूल्य वचनोंको ध्यानमें नहीं रक्खा। मैंने आपके कहे हुए अनुपम तत्त्वका विचार नहीं किया । आपके द्वारा प्रणीत किये उत्तम शीलका सेवन नहीं किया। आपके कहे हुए दया, शांति, क्षमा और पवित्रताको मैंने नहीं पहचाना । हे भगवन् ! मैं भूला, फिरा, भटका, और अनंत संसारकी विटम्बनामें पड़ा हूँ। मैं पापी हूँ। मैं बहुत मदोन्मत्त और कर्म-रजसे मलिन हूँ। हे परमात्मन् ! आपके कहे हुए तत्त्वोंके बिना मेरी मोक्ष नहीं होगी। मैं निरंतर प्रपचमें पड़ा हूँ। अज्ञानसे अंधा हो रहा हूँ, मुझमें विवेक-शक्ति नहीं । मैं मूढ़ हूँ; मैं निराश्रित हूँ, मैं अनाथ हूँ। हे वीतरागी परमात्मन् ! अब मैं आपका आपके धर्मका और आपके मुनियोंका शरण लेता हूँ। अपने अपराध क्षय करके मैं उन सब पापोंसे मुक्त होऊँ यही मेरी अभिलाषा है। पहले किये हुए पापोंका मैं अब पश्चात्ताप करता हूँ। जैसे जैसे मैं सूक्ष्म विचारसे गहरा उतरता जाता हूँ, वैसे वैसे आपके तत्त्वके चमत्कार मेरे स्वरूपका प्रकाश करते हैं । आप वीतरागी, निर्विकारी, सच्चिदानंदस्वरूप, सहजानंदी, अनंतज्ञानी, अनंतदर्शी, और त्रैलोक्य-प्रकाशक हैं । मैं केवल अपने हितके लिये आपकी साक्षीसे क्षमा चाहता हूँ। एक पल भी आपके कहे हुए तत्त्वमें शंका न हो, आपके बताये हुए रास्तेमें मैं अहोरात्र रहूँ, यही मेरी आकांक्षा और वृत्ति होओ ! हे सर्वज्ञ भगवन् ! आपसे मैं विशेष क्या कहूँ ! आपसे कुछ अज्ञात नहीं। पश्चात्तापसे मैं कर्मजन्य पापकी क्षमा चाहता हूँॐ शांतिः शांतिः शांतिः । ५७ वैराग्य धर्मका स्वरूप है खनसे रँगा हुआ वस्त्र खूनसे धोये जानेपर उज्ज्वल नहीं हो सकता, परन्तु अधिक रंगा जाता है। यदि इस वस्त्रको पानीसे धोते हैं तो वह मलिनता दूर हो सकती है । इस दृष्टान्तको आत्मापर घटाते हैं। अनादि कालसे आत्मा संसाररूपी खूनसे मलिन है । मलिनता इसके प्रदेश प्रदेशमें व्याप्त हो रही है। इस मलिनताको हम विषय-शृंगारसे दूर करना चाहें तो यह दूर हो नहीं सकती। जिस
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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