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५४ श्रीमद् राजचन्द्र
[महावीरशासन इनका यह धर्मतीर्थ चल रहा है । यह २१,००० वर्ष अर्थात् पंचमकालके पूर्ण होनेतक चलेगा, ऐसा भगवतीसूत्रमें कहा है।
इस कालके दस आश्चयोंसे युक्त होनेके कारण इस श्रीधर्म-तीर्थके ऊपर अनेक विपत्तियाँ आई हैं, आती हैं, और आवेंगी।
__ जैन-समुदायमें परस्पर बहुत मतभेद पड़ गये हैं । ये मतभेद परस्पर निंदा-ग्रन्थोंके द्वारा जंजाल फैला बैठे हैं । मध्यस्थ पुरुष मत मतांतरमें न पड़कर विवेक विचारसे जिन भगवान्की शिक्षाके मूल तत्त्वपर आते हैं, उत्तम शीलवान मुनियोंपर भक्ति रखते हैं, और सत्य एकाग्रतासे अपनी आत्माका दमन करते हैं।
__ कालके प्रभावके कारण समय समयपर शासन कुछ न्यूनाधिक रूपमें प्रकाशमें आता है। __'वकजडा य पच्छिमा' यह उत्तराध्ययनसूत्रका वचन है। इसका भावार्थ यह है कि अंतिम तीर्थकर (महावीरस्वामी) के शिष्य वक्र और जड़ होंगे। इस कथनको सत्यताके विषयमें किसीको बोलनेकी गुंजायश नहीं है । हम तत्त्वका कहाँ विचार करते हैं ? उत्तम शीलका कहाँ विचार करते हैं ! नियमित वक्तको धर्ममें कहाँ व्यतीत करते हैं ? धर्मतीर्थक उदयके लिये कहाँ लक्ष रखते हैं ! लगनसे कहाँ धर्म-तत्त्वकी खोज करते हैं ? श्रावक कुलमें जन्म लेनेके कारण ही श्रावक कहे जाते हैं, यह बात हमें भावकी दृष्टिसे मान्य नहीं करनी चाहिये । इसलिये आवश्यक आचार-ज्ञान-खोज अथवा इनमेंसे जिसके कोई विशेष लक्षण हों, उसे श्रावक मानें तो वह योग्य है । अनेक प्रकारकी द्रव्य आदि सामान्य दया श्रावकके घरमें पैदा होती है और वह इस दयाको पालता भी है, यह बात प्रशंसा करने योग्य है । परन्तु तत्त्वको कोई विरले ही जानते हैं । जाननेकी अपेक्षा बहुत शंका करनेवाले अर्धदग्ध भी हैं; जानकर अहंकार करनेवाले भी हैं । परन्तु जानकर तत्त्वके काँटेमें तोलनेवाले कोई विरले ही हैं । परम्पराकी आम्नायसे केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और परम अवधिज्ञान विच्छेद हो गये । दृष्टिवादका विच्छेद है, और सिद्धांतका बहुतसा भाग भी विच्छेद हो गया है। केवल थोडेसे बचे भागपर सामान्य बुद्धिसे शंका करना योग्य नहीं । जो शंका हो उसे विशेष जाननेवालेसे पूछना चाहिये । वहाँसे संतोषजनक उत्तर न मिले तो भी जिनवचनकी श्रद्धामें चल-विचल करना योग्य नहीं, क्योंकि अनेकांत शैलीके स्वरूपको विरले ही जानते है।
भगवान्के कथनरूप मणिके घरमें बहुतसे पामर प्राणी दोषरूप छिद्रोंको खोजनेका मथनकर अधोगतिको ले जानेवाले कर्मोको बाँधते हैं । हरी वनस्पतिके बदले उसे सुखाकर काममें लेना किसने और किस विचारसे ढूंढ निकाला होगा ? यह विषय बहुत बड़ा है । यहाँ इस संबंधमें कुछ कहनेकी जरूरत नहीं । तात्पर्य यह है कि हमें अपनी आत्माको सार्थक करनेके लिये मतभेदमें नहीं पड़ना चाहिये।
उत्तम और शांत मुनियोंका समागम, विमल आचार, विवेक, दया, क्षमा आदिका सेवन करना चाहिये । महावीरके तीर्थके लिये हो सके तो विवेकपूर्ण उपदेश भी कारण सहित देना चाहिये। तुच्छ बुद्धिसे शंकित नहीं होना चाहिये । इसमें अपना परम मंगल है इसे नहीं भूलना चाहिये ।