________________
श्रीमद् राजचन्द्र
[तृष्णाकी विचित्रता हैं। इस कारण इसका त्याग करना ही उचित है । सत्य संतोषके समान निरुपाधिक सुख एक भी नहीं । ऐसे विचारते विचारते, तृष्णाके शमन करनेसे उस कपिलके अनेक आवरणोंका क्षय हुआ, उसका अंतःकरण प्रफुल्लित और बहुत विवेकशील हुआ । विवेक विवेकमें ही उत्तम ज्ञानसे वह अपनी आत्माका विचार कर सका । उसने अपूर्व श्रेणी चदकर केवलज्ञानको प्राप्त किया।
तृष्णा कैसी कनिष्ठ वस्तु है ! ज्ञानी ऐसा कहते हैं कि तृष्णा आकाशके समान अनंत है, वह निरंतर नवयौवनमें रहती है । अपनी चाह जितना कुछ मिला कि उससे चाह और भी बढ़ जाती है । संतोष ही कल्पवृक्ष है, और यही प्रत्येक मनोवांछाको पूर्ण करता है ।
४९ तृष्णाकी विचित्रता
(एक गरीबकी बढ़ती हुई तृष्णा) जिस समय दीनताई थी उस समय ज़मीदारी पानेकी इच्छा हुई, जब ज़मीदारी मिली तो सेठाई पानेकी इच्छा हुई, जब सेठाई प्राप्त हो गई तो मंत्री होनेकी इच्छा हुई, जब मंत्री हुआ तो राजा बननेकी इच्छा हुई । जब राज्य मिला, तो देव बननेकी इच्छा हुई, जब देव हुआ तो महादेव होनेकी इच्छा हुई । अहो रायचन्द्र ! वह यदि महादेव भी हो जाय तो भी तृष्णा तो बढ़ती ही जाती है, मरती नहीं, ऐसा मानों ॥१॥
___ मुंहपर झुर्रियाँ पड़ गई, गाल पिचक गये, काली केशकी पट्टियाँ सफेद पड़ गई; सूंघने, सनने और देखनेकी शक्तियाँ जाती रहीं, और दाँतोंकी पंक्तियाँ खिर गई अथवा घिस गई, कमर टेढ़ी हो गई, हाड़-माँस सूख गये, शरीरका रंग उड़ गया, उठने बैठनेकी शक्ति जाती रही, और चलने में हाथमें लकड़ी लेनी पड़ गई । अरे ! रायचन्द्र, इस तरह युवावस्थासे हाथ धो बैठे, परन्तु फिर भी मनसे यह राँड ममता नहीं मरी ॥२॥
करोड़ोंके कर्जका सिरपर डंका बज रहा है, शरीर सूखकर रोगसे ऊँध गया है, राजा भी पीड़ा देनेके लिये मौका तक रहा है और पेट भी पूरी तरहसे नहीं भरा जाता । उसपर माता पिता और
४९ तृष्णानी विचित्रता (एक गरीबनी वधती गयेली तृष्णा)
मनहर छंद हती दीनताई त्यारे ताकी पटेलाई अने, मळी पटेलाई त्यारे ताकी छे शेठाईने सांपडी शेठाई त्यारे ताकी मंत्रिताई अने, आवी मंत्रिताई त्यारे ताकी नृपताईने । मळी नृपताई त्यारे ताकी देवताई अने, दीठी देवताई त्यारे ताकी शंकराईने; अहो ! राज्यचन्द्र मानो मानो शंकराई मळी, वधे तृष्णाई तोय जाय न मराईने ॥ १ ॥ करोचली पडी डाढी डांचातणो दाट वन्यो, काळी केशपटी विषे, श्वतता छवाई गई संघg, सांभलवू ने, देखq ते मांडी वन्यु, तेम दांत आवली ते, खरी, के खवाई गई। वळी केड वांकी, हार गयां, अंगरंग गयो, उठवानी आय जतां लाकडी लेवाई गई। अरे! राज्यचन्द्र एम, युवानी हराई पण, मनयी न तोय रांड, ममता मराई गई ॥२॥ करोडोना करजना, शीरपर डंका वागे, रोगयी रंधाई गयुं, शरीर सूकाईने, पुरपति पण माथे, पीदवाने ताकी रह्यो, पेट तणी बेठ पण शके न पुराईने ।