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________________ तत्व समझना] मोक्षमाला पर प्रौढ और विवेकपूर्वक विचार कर शास्त्र जितना ज्ञान हृदयंगम किया हो, ऐसे पुरुष मिलने दुर्लभ हैं । तत्त्वको पहुँच जाना कोई छोटी बात नहीं, यह कूदकर समुद्रके उलाँघ जानेके समान है। अर्थ शब्दके लक्ष्मी, तत्त्व, और शब्द, इस तरह बहुतसे अर्थ होते हैं । परन्तु यहाँ अर्थ अर्थात् ' तत्त्व' इस विषयपर कहना है । जो निग्रंथ प्रवचनमें आये हुए पवित्र वचनोंको कंठस्थ करते हैं, वे अपने उत्साहके बलसे सत्फलका उपार्जन करते हैं । परन्तु जिन्होंने उसका मर्म पाया है, उनको तो इससे सुख, आनंद, विवेक और अन्तमें महान् फलकी प्राप्ति होती है । अपढ़ पुरुप जितना सुंदर अक्षर और खेंची हुई मिथ्या लकीर इन दोनाके भेदको जानता है, उतना ही मुखपाठी अन्य ग्रंथोंके विचार और निग्रंथ प्रवचनको भेदरूप मानता है। क्योंकि उसने अर्थपूर्वक निग्रंथ वचनामृतको धारण नहीं किया, और उसपर यथार्थ तत्त्व-विचार नहीं किया । यद्यपि तत्त्व-विचार करनेमें समर्थ बुद्धि-प्रभावकी आवश्यकता है, तो भी कुछ विचार जरूर कर सकता है । पत्थर पिघलता नहीं, फिर भी पानीसे भीग जाता है । इसीतरह जिसने वचनामृत कंठस्थ किया हो, वह अर्थ सहित हो तो बहुत उपयोगी हो सकता है । नहीं तो तोतेवाला राम नाम । तोतेको कोई परिचयमें आकर राम नाम कहना भले ही सिखला दे, परन्तु तोतेकी बला जाने, कि राम अनारको कहते हैं, या अंगुरको । सामान्य अर्थके समझे बिना ऐसा होता है । कच्छी वैश्योंका एक दृष्टांत कहा जाता है । वह हास्ययुक्त कुछ अवश्य है, परन्तु इससे उत्तम शिक्षा मिल सकती है । इसलिये इसे यहाँ कहता हूँ। कच्छके किसी गाँवमें श्रावक-धर्मको पालते हुए रायशी, देवशी और खेतशी नामके तीन ओसवाल रहते थे। वे नियमित रीतिसे संध्याकाल और प्रभातमें प्रतिक्रमण करते थे । प्रभातमें रायशी और संध्याकालमें देवशी प्रतिक्रमण कराते थे । रात्रिका प्रतिक्रमण रायशी कराता था। रात्रिके संबंधसे 'रायशी पडिकमणुं ठायमि' इस तरह उसे बुलवाना पड़ता था। इसी तरह देवशीको दिनका संबंध होनेसे 'देवशी पडिक्कमणं ठायमि' यह बुलवाना पड़ता था । योगानुयोगसे एक दिन बहुत लोगोंके आग्रहसे संध्याकालमें खेतशीको प्रतिक्रमण बुलवाने बैठाया। खेतशीने जहाँ ' देवशी पडिक्कमणुं ठायमि' आया, वहाँ 'खेतशी पडिक्कम' ठायमि' यह वाक्यं लगा दिया । यह सुनकर सब हँसने लगे और उन्होंने पूँछा, यह क्या ? खेतशी बोला, क्यों ? सबने कहा, कि तुम 'खेतशी पडिक्कमणुं ठायमि, ऐसे क्यों बोलते हो? खेतीने कहा, कि मैं गरीब हूँ इसलिये मेरा नाम आया तो वहाँ आप लोग तुरत ही तकरार कर बैठे । परन्तु रायशी और देवशीके लिये तो किसी दिन कोई बोलता भी नहीं । ये दोनों क्यों 'रायशी पडिकमj ठायंमि' और 'देवशी पडिक्कमणुं ठायमि' ऐसा कहते हैं ? तो फिर मैं 'खेतशी पडिक्कमणुं टायमि' ऐसे क्यों न कहूँ ! इसकी भद्रताने सबको विनोद उत्पन्न किया । बादमें प्रतिक्रमणका कारण महित अर्थ समझानेसे खेतशी अपने मुखसे पाठ किये हुए प्रतिक्रमणसे शरमाया ।। यह तो एक सामान्य बात है, परन्तु अर्थकी खूबी न्यारी है । तत्त्वज्ञ लोग उसपर बहुत विचार कर सकते हैं। बाकी तो जैसे गुड मीठा ही लगता हैं, वैसे ही निम्रन्थ वचनामृत भी श्रेष्ठ फलको ही देते हैं। अहो । परन्तु मर्म पानेकी बातकी तो बलिहारी ही है! .... . . २७ यतना जैसे विवेक धर्मका मूल तत्त्व है, वैसे ही यतना धर्मका उपतत्व है। विवेकसे धर्मतत्त्वका ग्रहण किया जाता है, तथा यतनासे वह तत्व शुद्ध रक्खा जा सकता है, और उसके अनुसार आचरण किया
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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