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________________ ૨૮ श्रीमद् सजचन्द्र [ससंग पर्वतने कहा, " अज अर्थात् बकरा" । नारद बोला, "हम तीनों जने जिस समय तेरे पिताके पास पढ़ते थे, उस समय तेरे पिताने तो 'अज' का अर्थ तीन वर्षके 'व्रीहि' बताया था, अब तू विपरीत अर्थ क्यों करता है ! इस प्रकार परस्पर वचनोंका विवाद बढ़ा । तब पर्वतने कहा, "जो हमें वसुराजा कह दे, वह ठीक है ।" इस बातको नारदने स्वीकार की, और जो जीते, उसके लिये एक शर्त लगाई । पर्वतकी माँ जो पासमें ही बैठी थी, उसने यह सब सुना । अज' का अर्थ 'बीहि' उसे भी याद था । परन्तु शर्तमें उसका पुत्र हारेगा, इस भयसे पर्वतकी माँ रातमें राजाके पास गई और {छा,-" राजन् ! 'अन' का क्या अर्थ है ?" वसुराजाने संबंधपूर्वक कहा, " अजका अर्थ व्रीहि होता.है"। तब पर्वतकी माने राजासे कहा, "मेरे पुत्रने अजका अर्थ 'बकरा' कह दिया है, इसलिये आपको उसका पक्ष लेना पड़ेगा | वे लोग आपसे पूंछनेके लिये आवेंगे।" वसुराजा बोला, "मैं असत्य कैसे कहूँगा, मुझसे यह न हो सकेगा।" पर्वतकी माँने कहा, " परन्तु यदि आप मेरे पुत्रका पक्ष न लेंगे, तो मैं आपको हत्याका पाप दूंगी।" राजा विचारमें पड़ गया, कि सत्यके कारण ही मैं मणिमय सिंहासनपर अधर बैठा हूँ, लोक-समुदायका न्याय करता हूँ, और लोग भी यही जानते हैं, कि राजा सत्य गुणसे सिंहासनपर अंतरीक्ष बैठता है । अब क्या करना चाहिये ? यदि पर्वतका पक्ष न लें, तो ब्राह्मणी मरती है; और यह मेरे गुरुकी स्त्री है । अन्तमें लाचार होकर राजाने ब्राह्मणीसे कहा, " तुम बेखटके जाओ, मैं पर्वतका पक्ष लँगा।" इस प्रकार निश्चय कराकर पर्वतकी माँ घर आयी। प्रभातमें नारद, पर्वत और उसकी माँ विवाद करते हुए राजाके पास आये । राजा अनजान होकर पंछने लगा कि क्या बात है, पर्वत ? पर्वतने कहा, "राजाधिराज ! अजका क्या अर्थ है, सो कहिये।" राजाने नारदसे पूछा, "तुम इसका क्या अर्थ करते हो ?" नारदने कहा, 'अज' का अर्थ तीन वर्षका 'ब्रीहि' होता है । तुम्हें क्या याद नहीं आता ! वसुराजा बोला, 'अज' का अर्थ 'बकरा' है ब्रीहि' नहीं। इतना कहते ही देवताने सिंहासनसे उछालकर वसुको नीचे गिरा दिया । बसु कालपरिणाम पाकर नरकमें गया। __इसके ऊपरसे यह मुख्य शिक्षा मिलती है, कि सामान्य मनुष्योंको सत्य, और राजाको न्यायमें अपक्षपात और सत्य दोनों ग्रहण करने योग्य हैं। भगवान्ने जो पाँच महाव्रत कहे हैं, उनमेंसे प्रथम महावतकी रक्षाके लिये बाकीके चार व्रत बाबरूप हैं, और उनमें भी पहली बाड़ सत्य महावत है। इस सत्यके अनेक भेदोंको सिद्धांतसे श्रवण करना आवश्यक है। २४ सत्संग सत्संग सब सुखोंका मूल है । सत्संगका लाभ मिलते ही उसके प्रभावसे वांछित सिद्धि हो ही जाती है। अधिकसे अधिक भी पवित्र होनेके लिये सत्संग श्रेष्ठ साधन है। संत्सगकी एक घड़ी जितना लाभ देती है, उतना कुसंगके करोड़ों वर्षभी लाभ नहीं दे सकते। वे अधोगतिमय महापाप कराते हैं, और आत्माको मलिन करते हैं । सत्संगका सामान्य अर्थ उत्तम लोगोंका सहवास करना होता है। जैसे जहाँ अच्छी हवा नहीं आती, वहाँ रोगकी वृद्धि होती है, वैसे ही जहाँ सत्संग नहीं, वहाँ आत्म-रोग बढ़ता
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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