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________________ संसारकी चार उपमायें मोक्षमाला रूपी अग्नि जला ही करती है। जैसे समुद्र चौमासेमें अधिक जल पाकर गहरा उतर जाता है, वैसे ही संसार पापरूपी जल पाकर गहरा हो जाता है, अर्थात् वह मज़बूत जड़ जमाता जाता है। २ संसारको दूसरी उपमा अग्निकी लागू होती है। जैसे अमिसे महातापकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही संसारसे भी त्रिविध तापकी उत्पत्ति होती है। जैसे अमिसे जला हुआ जीव महा बिलबिलाहट करता है, वैसे ही संसारसे जला हुआ जीव अनंत दुःखरूप नरकसे असह्य बिलबिलाहट करता है । जैसे अग्नि सब वस्तुओंको भक्षण कर जाती है, वैसे ही अपने मुखमें पड़े हुएको संसार भक्षण कर जाता है । जिस प्रकार अग्निमें ज्यों ज्यों घी और इंधन होमे जाते हैं, त्यों त्यों वह वृद्धि पाती है, उसी प्रकार संसारम्प अनिमें तीव्र मोहरूप घी और विषयरूप ईंधनके होम करनेसे वह वृद्धि पाती है। ३ संसारको तीसरी उपमा अंधकारकी लागू होती है। जैसे अंधकारमें रस्सी सर्पका भान कराती है, वैसे ही संसार सत्यको असत्यरूप बताता है । जैसे अंधकारमें प्राणी इधर उधर भटककर विपत्ति भोगते हैं, वैसे ही संसारमें बेसुध होकर अनंत आत्मायें चतुर्गतिमें इधर उधर भटकती फिरती हैं । जैसे अंधकारमें काँच और हारेका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही संसाररूपी अंधकारमें विवेक और अविवेकका ज्ञान नहीं होता । जैसे अंधकारमें प्राणी आँखोंके होनेपर भी अंधे बन जाते हैं, वैसे ही शक्तिके होनेपर भी संसारमें प्राणी मोहांध बन जाते हैं। जैसे अंधकारमें उल्लू आदिका उपद्रव बढ़ जाता है, वैसे ही संसारमें लोभ, माया आदिका उपद्रव बढ़ जाता है । इस तरह अनेक प्रकारसे देखनेपर संसार अंधकाररूप ही मालूम होता है। २० संसारकी चार उपमायें (२) ४ संसारको चौथी उपमा शकट-चक्र अर्थात् गाडीके पहियोंकी लागू होती है। जैसे चलता हुआ शकट-चक्र फिरता रहता है, वैसे ही प्रवेश होनेपर संसार फिरता रहता है । जैसे शकट-चक्र धुरेके विना नहीं चल सकता, वैसे ही संसार मिथ्यात्वरूपी धुरेके विना नहीं चल सकता। जैसे शकट-चक्र आरोंसे टिका रहता है, वैसे ही संसार-शर्कट प्रमाद आदि आरोंसे टिका हुआ है । इस तरह अनेक प्रकारसे शकट-चक्रकी उपमा भी संसारको दी जा सकती है। इसप्रकार संसारको जितनी अधो उपमायें दी जा सकें उतनी ही थोदी हैं । मुख्य रूपसे ये चार उपमायें हमने जान लीं, अब इसमेंसे हमें तत्त्व लेना योग्य है: १ जैसे सागर मज़बूत नाव और जानकार नाविकसे तैरकर पार किया जाता है, वैसे ही सद्धर्मरूपी नाव और सद्गुरुरूपी नाविकसे संसार-सागर पार किया जा सकता है । जैसे सागरमें विचक्षणं पुरुषोंने निर्विन रास्तेको ढूंदकर निकाला है, वैसे ही जिनेश्वर भगवान्ने तत्त्वज्ञानरूप निर्विन उत्तम रास्ता बताया है। २ जैसे अमि सबको भक्षण कर जाती है, परन्तु पानीसे बुझ जाती है, वैसे ही वैराग्य-जलसे संसार-अमि बुझ सकती है। १ जैसे अंधकारमें दीपक ले जानेसे प्रकाश होनेसे हम पदार्थोंको देख सकते हैं, वैसे ही तत्वज्ञानरूपी न घुसनेवाला दीपक संसाररूपी अंधकारमें प्रकाश करके सत्य वस्तुको बताता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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