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- शिवमूर्ति ]
वह अनन्त कैसे और यदि निरा अनंत मान के अपने मन और वचन को उनकी ओर से विलकुल फेर लें तो हम आस्तिक कैसे ! सिद्धान्त यह कि हमारी बुद्धि जहाँ तक है वहाँ तक उनकी स्तुति-प्रार्थना, ध्यान, उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शान्ति लाभ करेंगे! । उनके साथ जिस प्रकार का जितना सम्बन्ध हम रख सके उतना ही हमारा मन, बुद्धि, शरीर, संसार, परमार्थ के लिये मङ्गल है । जो लोग केवल जगत् के दिखाने को वा सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं उनसे तो हमारी यही विनय है कि व्यर्थ समय न वितावें । जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने-खाने, पढ़ने-गुनने में ध्यान दें तो
भला है ! और जो केवल शास्त्रार्थी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना । पिता बना के निज-माता को कलङ्क लगाते हैं । माता कह के बेचारे जनक
को दोषी ठहराते हैं, साकार कल्पना करके व्यापकता का और निराकार कह के अस्तित्व का लोप करते हैं । हमारा यह लेख केवल उनके विनोदार्थ. है जो अपनी विचारशक्ति को काम में लाते हैं और ईश्वर के साथ जीवित - सम्बन्ध रख के हृदय में आनन्द पाते हैं तथा आप लाभ-कारक वातों को समझ के दूसरे को समझाते हैं । प्रिय पाठक ! उसकी सभी बातें अनन्त हैं , तो मूर्तियाँ भी अनन्त प्रकार से बन सकती हैं और एक-एक स्वरूप में अनन्त उपदेश प्राप्त हो सकते हैं । पर हमारी बुद्धि अनन्त नहीं है, इससे कुछ एक प्रकार की मूर्तियों का कुछ अर्थ लिखते हैं।
: मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है जिसको प्रयोजन यह है कि उनसे हमारा दृढ़ सम्बन्ध है । दृढ़ वस्तुओं की उपमा पाषाण से दी जाती है। हमारे विश्वास की नींव पत्थर पर है । हमारा धर्म पत्थर का है। ऐसा नहीं 'कि सहज में और का और हो जाय । इसमे बड़ा सुभीता यह भी है कि एक बार वनवा के रख ली, कई पीढ़ी को छुट्टी हुई। चाहे जैसे असावधान पूजक आवें कोई हानि नहीं हो सकती है । धातु की मूर्ति से यह अर्थ है कि हमारा स्वामी द्रवणशील अर्थात् दयामय है जहाँ हमारे हृदय में प्रेमाग्नि धधकी वहीं हमारा प्रभु हम पर पिघल उठा। यदि हम सच्चे तदीय हैं तो