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* ' साहित्य जन-समूह के हृदयं का विकास है ] ' ', उपासक रामोपासकों से इत्ति काक नहीं रखते। कृष्णोपासकों में भी सत्याना
सिन अन्यान्यता ऐसी आड़े आई है कि यह इनके आपस ही में बड़ा खटपट लगाये रहती है।
' प्राकृत के उपरान्त हमारे देश के साहित्य के दो नमूने और मिलते है, एक पद्मावत और दूसरा पृथ्वीराज रासी । पद्मावत की कविता में तो
किसी कदर कुछ थोड़ा-सा रस है भी; पर पृथ्वीराज-रासो में तारीफ के ___ लायक कौन-सी बात, है-यह हमारी समझ में बिलकुल नहीं पाती । प्राकृत ' से उतरते-उतरते हमारी विद्यमान हिन्दी इस शकल में कैसे आई इस वात . का पता अलबत्ता रासो से लगता है । मत-मतान्तर के साथ ही साथ हमारी भाषो भी गुजराती, मरहठी, बङ्गाली इत्यादि के भेद से प्रत्येक प्रान्त की जुदी-जुदी भाषा हो गई । इन देशी भाषाओं मे बंगाली सबसे अधिक कोमल और सरस है; मरहठी महा कठार और कर्णकटु; तथा पंजाबी निहा. यत भद्दी, कठोर और रूखापन में उर्दू की छोटी बहन है । १ अब अपनी हिन्दी की ओर आइये । इसमें सन्देह नहीं, विस्तार में हिन्दी अपनी बहनों में सब से बड़ी है । ब्रजभाषा, बुन्देलखण्डी, बैसवारे की बोली तथा भोजपुरी इत्यादि इसके कई एक अवान्तर भेद हैं । ब्रजभाषा मे यद्यपि कुछ मिठास है, पर यह इतनी जनानी बोली है कि इसमें केवल शृङ्गार के दूसरा रस आ ही नहीं सकता । जिस वोली को कवियों ने अपने लिये चुन रक्खा है, वह बुन्देलखंड की बोली है । इसमें सब प्रकार के काव्य और सब रस समा सकते हैं। अपनी-अपनी पसन्द निराली होती है-"भिन्नरुचिहि लोकः ।" हमें बैसवारे की , मर्दानी बोली सबसे अधिक भली मालूम होती है । दूसरी भाषाएँ, जैसे मरहठी, गुजराती, बंगला की अपेक्षा कविता के + अंश में हिन्दी का साहित्य बहुत चढ़ा हुआ है तथा संस्कृत से कुछ ही न्यून • है। किन्तु गद्य-रचना 'प्रोज़" हिन्दी का बहुत कम और पोंच है । सिवा एक प्रेमसागर-सी दरिद्र रचना के इसमें कुछ है ही नहीं, जिसे हम इसके साहित्य के भाण्डार में शामिल करते हैं । दूसरी उर्दू इसकी ऐसी रीढ़ मारे हुए है कि शुद हिन्दी तुलसी, सूर इत्यादि कवियों की पद्य-रचना के अतिरिक्त और