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( ८ ) सन्देह नहीं कि इन लेखकों की भाषा-शैली में व्यंग्य के साथ-साय विनोद की बहुत अच्छी कला है; और शब्दों तथा वाक्यों से हार्दिक भाव प्रदर्शन की क्षमता भी काफी मात्रा में है, परन्तु रचना का वीहड़पन और ग्रामीणता भी कहीं-कहीं प्रदर्शित होती है। अस्तु ।
भारतेन्दु जी के वाद द्विवेदी जी का ही ध्यान भाषा शैली के परिमार्जन की ओर आकर्षित हुया और उन्होंने हरिश्चन्द्र-काल की शैली में भाषा और व्याकरण सम्बन्धी भूलों का परिमार्जन किया । स्वयं कई प्रकार की टकसाली हिन्दी लिखी, और "सरस्वती के सम्पादन के द्वारा. सैकड़ों नवीन और प्राचीन गद्य-लेखकों का विशुद्ध हिन्दी लिखने का मार्ग प्रदर्शित किया। समालोचना के द्वारा, हिन्दी-संसार में, व्याकरण-विशुद्ध भाषा लिखने के कई बड़े-बड़े आन्दोलन उठाये । अालोचनापूर्ण व्यंगात्मक शैली, अखबारों के प्रयोग में अानेवाली चलती हुई भाषा शैली, विवेचनात्मक तर्कपूर्ण शैली और काव्योपयोगी अलकारात्मक भावपूर्ण शैली, इत्यादि कई प्रकार की भाषा प्राचार्य द्विवेदी जी ने स्वयं लिखी; और इस प्रकार के कई लेखकों को प्रोत्साहित भी किया।
द्विवेदी जी के भाषा-सम्बन्धी आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि हिन्दी गद्य-शैली का परिमार्जित सुन्दर स्वरूप निखर और बिखर उठा । भाषा में एक प्रकार की संघटनात्मक व्यापकता का समावेश हो गया । विवेचनात्मक तर्क-पूर्ण शैली और उद्गारात्मक भावपूर्ण शैली-इन दोनों शैलियों के स्वतंत्र स्वरूप हिन्दी लेखकों के सामने आगये । फलतः वर्तमान समय के सैकड़ों हिन्दी लेखक, अपनी-अपनी वैयक्तिक विशेषताओं के साथ, अपनीअपनी स्वतंत्र शैलियों में हिन्दी-गद्य-निर्माण का कार्य करने लगे।
इस प्रकार वर्तमान समय मे हिन्दी की गद्य शैली का विकास हुआ। अवश्य परन्तु फिर भी ऐसे बहुत ही कम लेखक पाये जाते हैं जिनका गद्य पढ़ने में हमको ग्रानन्द श्राता है। और गद्य लिखना हे भी बहुत कठिन । शायद इसी लिए हमारे पूर्वाचायों ने गद्य को कवियों की क्सौटी माना है।
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