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[हिन्दी-गध-निर्माण शारंगरव-(क्रोध करके शकुन्तला से) हे कर्महीन ! तू क्या स्वतंत्र हुआ चाहती है ?
शकुन्तला थरथराती है।] है जो शकुन्तला तू ऐसी, नरपति तोही बतावत जैसी । तौ जग में तू पतित कहावे, पिता गेह श्रावन क्यों पावे ॥२०७|| अरु जो जानति है मन माहीं, दोष कियो मैंने कछु नाही;
तौ यहि रहति लगे तू नीकी, दासी हूँ बनिके निज पी की ॥२०॥ दुष्यन्त-हे तपस्वियों, क्यों इसे धोखा देते हो, देखो___ दोहा-चन्द्र जगावतु कुमुदनी, पद्मिनि ही दिन नाय । ।
___ जती पुरुष कहुँ ना गहें, परनारी को हाय ॥२६॥ शारंगग्व-सत्य है, परन्तु तुम ऐसे हो कि दूसरी का संग पाकर अपने पहले
किये को भूलते हो फिर अधर्म से डरना कैसा । दुष्यन्त-(पुरोहित से) मैं तुम से इस विषय में यह पूछता हूँ- - - दोहा-के मैं ही वौरों भयो, के झूठी यह नारि। . .
ऐसे संशय के विषय, तुम कछु कहो विचारि ॥२१०॥ . किधौं दारत्यागी बनूँ, कर याको अपकार ।
कै परनारी परस को, लेहुँ दोष सिर भार ||२१|| पुरोहित-(सोच कर) अब तो यह करना चाहिये । दुष्यन्त-क्या करना चाहिये सो कृपा करके कहो। - पुरोहित-जब तक इस भगवती के वालक का जन्म हो तब तक यह मेरे घर ,
रहे, क्योंकि अच्छे अच्छे ज्योतिषियों ने आगे ही कह रखा है कि
आप के चक्रवर्ती पुत्र होगा, सो कदाचित् इस मुनि-कन्या के ऐसा ही पुत्र हो, जिसके लक्षण चक्रवर्ती के से पाए जायें तो इसे आदर से रनवास में लेना और न हो तो यह अपने पिता के आश्रम को
चली जायगी। दुष्यन्त-जो तुम बड़ों को अच्छा लगे सो करो। पुरोहित-(शकुन्तला से) आ पुत्री, मेरे पीछे चला था। शकुन्तला हे धरती, तू मुझे ठौर दे मैं समा जाऊँ।