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शकुन्तला नाटक ]. अनजाने मन के मरम, जुरति कहूँ जो प्रीति ।
" , पलटि बैर बन जाति फिर, पाछे याही रीति ||२०३|| - दुष्यन्त-क्या तुम इसी की बातों को प्रतीत करके मुझे इतने दोष . . लगाते हो।
. * शारंगरव-(अवज्ञा करके) क्या तुमने यह उलटा वेद नहीं सुना
दोहा~जन्महि ते जाने नहीं, जानी छल की रीति । ,
' ताके वचनन की कछु, करिये नहीं प्रतीति ॥२२४॥ - ।। मानि लीजिये उनहि को, सतवादी विद्वान ।।
': विद्या लों सीख्यों भलो पर वञ्चन को ज्ञान ॥२०५॥ 'दुष्यन्त-हे सत्यवादी, भला यह भी माना कि हमने दूसरों को छलना विद्या ' की भाँति सीखा है परन्तु कहो तो इस भगवती के छलने से मुझे
क्या मिलेगा! शारंगरव-भारी विपत्ति। दुष्यन्त नहीं नहीं, यह बात प्रेतीत न की जायगी कि पुरुवंशी अपने वा
पराये के लिये विपत्ति मांगते हैं। शारदत-हे शारंगरव, इस बात से क्या अर्थ निकलेगा हम तो गुरु.का संदेशा लाए थे सो भुगता चुके अब चलो। ।
. [ राजा को भोर देखकर ] दोहा-यह है तेरी नारि नृप, तू योको भरतार । - राखन छोड़न को सबै, तोही को अधिकार ॥२०६॥ प्राओं गौतमी आगे चलो। .
[दोनों मित्र और गौतमी जाते हैं। - शकुन्तला-हाय इस छलिया ने तौ' त्यागी, अब क्या तुम भी मुझ दुखिया को छोड़ जाओगे।
[उनके पीछे-पीछे चलती है] : गौतमी-(खड़ी होकर) बेटा सारंगरव, शकुन्तला तो यह पीछे-पीछे रोती - आती है ! अभागी को निरमोही पति ने छोड़ दिया, अव क्या करें ?