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- सकुन्तला नाटक] दुम्यन्त (कार्य पर हाथ रखकर)-पाप से भगवान् बचावे। 'दोहा-क्यों चाहित तू पदमिनी, करन पातकी मोहिं ।
अरु दूषित मम वंश को मैं पूछत हौं तोहि ॥१६६॥ । सरिता निज तट तोरि जो, रूखन लेति खसाय ।
नीर बिगारति प्रापनो शोभा देति नसाय ॥१६॥ शकुन्तला जो तुम भूल कर मत्यं ही मुझे परनारी समझते हो तो लो पते '' के लिये तुम्हारे ही हाथ की मुंदरी दूं जिससे तुम्हारी शंका
. मिट जायगी। दुभ्यन्त -अच्छी बात बनाई। - शकुन्तला-(गुली देखकर) हाय हाय मुंदरी कहाँ गई! -
[वड़ी व्याकुलता मे गोनमी की ओर देखती है। गौतमी-जब तैने शुक्रावतार के निकट सची तीर्थ में जल पाचमन किया - या तब मुंदरी गिर गई होगी।
दुष्यन्त (मुमका कर) स्त्री की तत्काल बुद्धि यही कहलाती। । शकुन्तला-यह तो विधाता ने अपना बल दिखाया परन्तु अभी एक पता
' और भी दूंगी। दुष्यन्त-सोकह दे मैं सुनूँगा। सकुन्तला-उस दिन की सुध है जब माधवी कुञ्ज में तुमने कमल के पत्ते में
जल अपने हाथ से लिया था। दुम्पन्त-तब क्या हुआ? शकुन्तला-उसी छिन मेरा पाला हुअा दीर्घापांग नाम मृगछोना आ गया .
. तुमने उसे बड़े प्यार से कहा "श्रा छोने पहले त् ही पी ले"।
" उसने तुम्हें विदेशी जान तुम्हारे हाथ से जल न पिया । फिर . उसी पत्ते में मैंने पिलाया तो पी लिया। तब तुमने हँस कर
कहा था कि सब कोई अपने ही सहवासी को पत्याता है तुम एक बन के बासी हो।।