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[हिन्दी-गव-निर्माण ।
सोचता हुमा बैठा है. प्रतीहारी-(दुष्यन्त से) महाराज तो अपने धर्म में सावधान है, नहीं तो
__ सन्मुख आए ऐसे स्त्री रत्न को देख कौन सोच-विचार करता है। शारंगरव-है राजा, ऐसे चुपके क्यों हो रहे हो । दुष्यन्त-हे तपस्वियो ! मैं बारम्बार सुध करता हूँ परन्तु स्मरण नहीं होता कि
इस भगवती से कभी मेरा विवाह हुआ, और जब इस गर्भवती के ' लेने से मुझे क्षेत्री' कहलाने का डर है तो क्यों कर इसे स्वीकार
कर सकता हूँ। शकुन्तला-(माप ही प्राप) हे दैव ! जो मेरे संग पाह ही में सन्देह है; तो
मेरी बहुत दिन की लगी आशा टूटी। .. शारंगरव-ऐसा मत कहो
जासु सुता नृप ते छलि लीनी, यह अनीति जाके संग कीनी। ... जाने तदपि बुरो नहिं मान्यो, न्याह तुम्हारो शुद्ध प्रमान्यों ।।१६४॥ चुरी वस्तु दैके निमि कोई, चोरहिं साह बनावत होई।
सो न जोग अपमान मुनीशा, देखु विचारि तुही छिति ईशा ||१६|| शारद्वत-शारंगरव, अब तुम ठहरी । हे शकुन्तला, हमको जो कुछ कहना
था कह चुके और उत्तर-भी सुन लिया अब तू कुछ कह जिससे इसे
प्रतीति हो। शकुन्तला-(माप हो पाप) जो वह स्नेह ही न रहा तौ अब सुध दिखाने,
से क्या प्रयोजन । अब तो मुझे लोक के अपवाद से क्या बचने. को चिन्ता है । (प्रगट) हे आर्य पुत्र । (आधा कह कर रुक जाती है) और जो व्याह ही से सन्देह है तो यह शन्द अनुनित है। हे पुरुवंशी, तुम को योग्य नहीं है कि आगे तपोवन में मुझ सीधे स्वभाव वाली को प्रतिशाओं से फुसला कर अब ऐसे निठुर वचन कहते हो।
विस मनुष्य की भी दूसरे पुरुष से गर्भवती हो यह क्षेत्री कहलाता है।