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________________ __४४ [हिन्दी-गद्य-निर्माण एकात होने के कारण मन ही मन मे सोचता था कि अहो ! मैंने अपने कुल को ऐसा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों का विकास होता है। क्या मनुष्य और क्या जीव-जंतु मैंने अपना सारा जन्म इन्हीं का भला करने मे गंवाया और व्रत उपवास करते-करते फूल-से शरीर को कोटा बनाया। जितना मैंने दान किया उतना तो कभी किसी के ध्यान में भी न आया होगा । जो मैं ही नहीं तो फिर और कौन हो सकता है ? मुझे अपने ईश्वर' । पर दावा है । वह अवश्य मुझे अच्छी गति देगा। ऐसा कव हो सकता है । कि मुझे कुछ दोष लगे १ . इसी अर्से मे चोवदार ने पुकारा-"चौधरी इन्द्रदत्त निगाह रूवरू!" श्रीमहाराज सलामत भोज ने ऑख उठाई, दीवान ने साष्टाग दडवत की, फिर सम्मुख जा हाथ जोड़ यो निवेदन किया--"पृथ्वीनाथ, सड़क पर वे कुएँ जिनके वास्ते आपने हुक्म दिया था वन कर तैयार हो गए हैं और श्राम के वाग भी सब जगह ला गए । जो पानी पीता है अापको असीम देता है और जो उन पेड़ों की छाया में विश्राम करता आपकी बढती दौलत मानता है।" राजा अति प्रसन्न हुआ और वोला कि "सुन मेरी अमलदारी भर मे जहाँ-जहाँ सड़क है कोम-कोस पर कुऐं खोदवाकर सदाव्रत बैठा दे और दुतरफा पेड़ भी जल्द लगवा दे।" इसी अर्से में दानाध्यक्ष ने पाकर आशीर्वाद दिया और . निवेदन किया-"धर्मावतार ! वह जो पाच हजार व्राह्मण हर साल जाड़े में । रजाई पाते हैं सो डेवढ़ी पर हाजिर हैं ।" राजा ने कहा- "अव पांच के बदले पचास हजार को मिला करे और रजाई की जगह शाल-दुशाले दिये जावें।" दानाव्यक्ष दुशालों के लाने के वास्ते तोशेखाने मे गया । इमारत के दारोगा ने आकर मुजरा किया और खवर दी कि 'महाराज ! उस बड़े मंदिर की जिसके जल्द बना देने के वास्ते सरकार से हुक्म हुआ है अाज नींव खुद गई, पत्थर गड़े जाते हैं और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं ।" महाराज ने तिउरियां वदल कर उस दारोगा को खूब घुड़का "अरे मूर्ख वहाँ पत्थर और लोहे का, क्या काम है ? बिलकुल मन्दिर संगमर्मर और संगमूसा से बनाया जावे और - लोहे के बदले उसमे जव जगह सोना काम मे आवे जिसमें भगवान भी उसे -
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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