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महावीरप्रसाद द्विवेदी . इसी समय तक हिन्दी में गद्य साहित्य का प्रचार बढ़ चला था और लेखकों की भी सख्या बढ़ती जा रही थी; किन्तु गद्य का कोई स्थिर रूप दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था । कहीं-कहीं व्याकरण की भद्दी भूलों से तत्कालीन । लेखकों के लेख भी दूषित दिखाई देते थे। लम्बे वाक्यों का प्रयोग भाषा को वोधगम्य बनाने में अड़चन डाल रहा था । किन्तु इस प्रकार की मत विभिन्नता में एकाएक परिवर्तन उत्पन्न हुआ । यह परिवर्तन सन् १६०० ई० मे प्रारम्भ हुआ । सन् १६०० ईसवी में सरकारी तौर पर न्यायालयों में हिन्दी के प्रवेश का प्रारंभ हुया । साथ ही काशी नागरी प्रचारिणी सभा का उत्थान
और प्रयोग से 'सरस्वती' ऐसी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। इस प्रकार के परिवर्तन ने भाषा की प्रगति मे भी एक विशेष प्रभाव डाला। इस समय लोगों मे यह विचार तो अवश्य हो रहा था कि भाषा का कोई न कोई रूप स्थिर होना चाहिए किन्तु वह विचार कार्यरूप में परिणत नहीं हो रहा था । इसलिए भाषा मे शिथिलता और व्याकरण-संबंधी निर्बलता उन दिनों के गद्य में देखी जाती है । उस समय पहले पहल पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ही 'सरस्वती' के द्वारा गद्य की उक्त निर्वलता का परिहार शुरू किया । अभी तक जो जिसके जी में श्राता था वह वैसा लिखता था, किन्तु द्विवेदी जी ने भाषा की इस अनस्थिरता को दूर करने के लिए तत्कालीन गद्य-लेखकों के लेखों का तीव्र आलोचना प्रारंभ की। इसका परिणाम यह हुआ कि लेखकगण विचार पूर्वक गद्य लिखने की ओर अग्रसर हुए।
भापा को शुद्ध और परिमार्जित बनाने म द्विवेदी जी ने विशेष सलमता से काम किया । इस सम्बन्ध मे द्विवेदी जी ने अपनी , एक नीति स्थिर की;
और उसी से रूप मे विशुद्ध और परिमार्जित रचना करके एक आदर्श उपस्थित किया । द्विवेदी जी ने भाषा को व्यावहारिक, शक्तिशाली, व्यवस्थित और व्यापक बनाने के लिए उर्दू, हिन्दी और अँगरेजी तीनों भाषाओं के शन्दा । और मुहाविरों का प्रयोग किया। छोटे-छोटे वाक्यों में अोज और कान्ति