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"अवतार]
२२३ अन्तःसंसार में झंकार कर उठे। देखते देखते वह ऐसा ज्ञानागार हो गया 'कि बड़े बड़े शानी उसकी ज्ञानवार्ता सुन कर दंग हो गये-ठगे से रह गये ।
वह जवान क्या हुआ, मानों परतन्त्रों का वह विस्तृत राष्ट्र उसके साथ साथ यौवनमय हो उठा । स्वदेश की दुर्दशा और मनुष्यों की नीचता देखते ही वह न्याय, सहानुभूति. त्याग और बलिदान के लिए पुकार पड़ा- ","हे दलित देश के बन्धुओं १ जागो, उठो, विद्रोह करो और
आतताइयों को यह बता दो कि मनुष्य पर मनुष्य को जबरदस्ती शासन या अत्याचार करने का कोई भी अधिकार नहीं है।
"सत्य-चिरन्तन के जन्मजात वीर वालको ! अरे तुम अपनी आत्मा की ओर देखो-शरीर की अोर नहीं। शरीर तो नाशमान है, मगर, यह आत्मा तुम्हारी अमर है। हमें कोई नहीं मार सकता फिर उठो ! और उठो ! जागो और जागो ! तथा विद्रोह करो इन भूले पागलों के विरुद्ध, जो आत्मा की गद्दी पर अपने शरीरों को संवारे बैठे हैं । ये मिथ्या मार्ग पर हैं, भूले हैं। इनके असत् और भूल का सर्वनाश होगा ही, वशर्ते कि तुम सत्य पर सावधानी से डटे रहो।
. "श्रतः पात्रो! अपनी आँखों मे ज्ञान का अंजन प्रॉजकर, सत्य का वर्म-चर्म पहनकर त्याग का मुकुट धारणकर और वलिदान को शस्त्र हाथ में लेकर । विद्रोह करो इन मनुष्यता के भूले पागलों के विरुद्ध । परमात्मा का
और श्रात्मा का सन्देश घर घर पहुँचाओं, परतन्त्रता की बेड़ी काटोस्वाधीन बनो! हे.अमर मनुष्यता के स्वर्ग-दुर्लभ सैनिको!"
आह ! उसकी वह पुकारे क्या थी उस पीड़ित देश के एक प्राणी के देखते पवित्र मन की प्रतिध्वनि थी देखते उस देश के लक्षाधिक बालक, . युवा, नर, नारी उसके विद्रोही झण्डे के नीचे आ खड़े हुए।
सत्ताधारी अत्याचारियों का अविचारी शासन-यन्त्र कॉपने लगा।
मगर अाह ! श्रादमी भी कैसा अनोखा अजायब-घर है । इस एक ही गनी पशु के भीतर अनेक विरोधी भावों की दुकाने एक साथ ही लगी रहती