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[हिन्दी-गद्य-निर्माण उस देश के परतन्त्र प्राणियों की कमजोरियों का अनुचित लाम उठाकर वे उन्हें भांति भौति की यातनाओं से पीड़ित करते थे। उनके छोटे-बड़े गाहियों
और कोड़ियों 'करों' का विस्तार ऐसा विकट था कि प्रजा त्राहि-त्राहि पुकार रही थी । विदेशी शासक और उनकी मशीन के स्वदेशी विदेशी पुरजे उस देश के गरीबों को वात वात में ऐसा पीसते थे कि देखने सुननेवाले दांतो अगुली दवाकर रह जाते थे। 1. ___इसी से तो वहां वाले रह-रहकर गरीव हृदय से पवित्र मन से, उस 'आनेवाले' को पुकार रहे थे । और इसी से तो उनकी पुकार सुनकर 'वह'
आया था। हाँ, हाँ वह पाया था! इतिहास तो यही गवाही दे रहे हैं।' __वह आया था, बड़े बड़े महलों में नहीं, और न भयानक दुगों में क्योंकि उस समय के दुर्ग और महल अत्याचारों के अड्ड थे। भला ऐसे अपवित्र स्थान में वह कैसे आता ? ____ वह आया था, सुवर्ण-सजित, मारबल -मण्डित देवमन्दिरों, पूजास्थानों
और मठों में नहीं, क्योंकि उस समय के वे पूजा-स्थान भी वेश्यालयों से कम नहीं थे । देवता, देवता नहीं पत्थर थे । उपासक, उपासक नहीं कामी कीड़े थे-भला उनके बीच में वह कैसे पाता। ___वह पाया था; एक दुनियाँ की झोपड़ी में, एक भूखी, सताई और गरीब जननी के गर्भ मन्दिर में, एक दुनिया के थपेड़ों से पागल. पिता के
ऑगन में। ___वह बालपन से ही तेजस्वी, धीमान् , दयालु, वीर, सुन्दर और नक्षत्रवान् सा मालूम पड़ता था। किशोरावस्था तक पहुँचते पहुँचते तो उसके घर के पड़ोसी अखें फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगे कि वह अवश्य कोई असाधारण प्राणी है । उसको सभी प्यार करते थे । उसको सभी 'अपना' मानना चाहते । ये। उसकी एक मुसकान, एक दया-दृष्टि के सभी आकांक्षी थे। -
वह उस समय के विद्यालयों में, ज्ञान लोभ में अधिक काल तक मायापच्ची नहीं करता रहा । कुछ घंटे क-ख और चन्द - दिनों तक कर्ताकर्म की कथा सुनते ही मानों भगदती शारदा को ज्ञान-वीणा के सारे तार उसके