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रीनों पर प्रेम
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.. पुरुष ने एक बार छाती फुलाकर चीत्कार किया। सिंह ने वह 'चीत्कार सुना । सिर उठाकर पुरुष की ओर, देखा । वहीं तनकर खड़ा हो .गया और पुरुष भी तूफान की तरह उसकी ओर तीर सधाते हुए बढ़ा। . - एक क्षण में दोनों शत्रु आमने सामने थे । सिंह टूटा ही चाहता था,
कि चकमक के फल वाला बाण उसका टीका फोड़ता हुआ सन्नन करता . ' निकल गया । गुहा में से किलकारी की ध्वनि सुनकर पुरुष का उत्साह और
भी बढ़ उठा।। . इसी क्षण म्रियमाण सिंह दूसरे अाक्रमण की तैयारी में था, कि मनुष्य ने उसे गेंद की तरह समूचा उठा लिया, और अपने पुरसे तक ले जाकर धड़ाम से पटक दिया। साथ ही, सिंह ने अपने पनों से अपना ही मुँह नोचते नोचते, फिर फेकते फेंकते ऐठते हुए, पुनः एक हलकी पछाड़ ' खाकर अपना दम तोड़ दिया ।।
नारी गुहा द्वार के सहारे खड़ी थी। उसका आधा शरीर लता की श्रोट में था। वहीं से वह अपने पुरुप का पराक्रम देख रही थी, आनन्द की कूके लगा रही थी।
हॉ, उसी दिन अंतःपुर का प्रारम्भ हुआ था।
दीनों पर प्रम
लेखक-श्री वियोगी हरि हम नाम के ही आस्तिक हैं । हर बात में ईश्वर का तिरस्कार करके " ही हमने 'आस्तिक' को ऊँची उपाधि पाई है। ईश्वर का एक नाम 'दीन
बन्धु' है। यदि हम वास्तव में आस्तिक है, ईश्वरभक्त है तो हमारा यह धर्म है दीनों को प्रेम से गले लगायें, उनकी सहायता करें, उनकी सेवा करें, उनकी शुभ्रषा करें। तभी न दीनवन्धु ईश्वर हम पर प्रसन्न होगा १ पर ऐसा