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हिन्दी-गव-निर्माब "यहीं से मेरा खल देखना ।" "क्यों मुझे ले चलने में हिचकते क्यों हो " "नहीं तुम्हारी रक्षा का खयाल है।" "क्यों श्राज तक किसने मेरी रक्षा की है ?" 'हाँ मैं यह नहीं कहता कि तुम अपनी रक्षा नहीं कर सकती
" 'पर?..... " "मेरा जी डरता है । "क्यों " 'तुम सुकुमारी हो ।
' श्राद्या का मुँह लाल हो उठा । क्रोध से नहीं, यह नये प्रकार की स्तुति थी। इसकी रमणीयता से उसका हृदय गुदगुदा उठा। । उसने मुसकरा कर पूछा-"तो मैं क्या करूँ"
, __ "यहीं बैठी वैठी तमाशा देखो। मैं एक झंखाड़ लगाकर गुफा का ; मुह और भी छिपाये देता हूँ। अाजकल इन चतुष्पदों ने हम द्विपदों से रार - ठान रक्खी है। देखना-सावधान !" _ "जात्रो ! जाश्रो! आज मुझे छलकर तुम मेरे अानन्द में बाधक हुए हो समझ लूगी !"
"नहीं कहना मानो । हृदय श्रागा-पीछा करता है, नहीं तो..." ।
"अच्छा, लेकिन झंखाड़ लगाकर क्या करोगे ? क्या मैं इतनी निहत्थी हो गई !" शक्ति ने मुस्करा दिया !
-"तो चल-कहकर पुरुष जब तक चले-चले. तब तक नारी ने उस , का हाथ पकड़ लिया--"लेकिन देखो; उसके रक्त से तुम्हें सजाऊँगी मैं ही। . और किसी दूसरे को खाल भी न लेने देना।
। “नहीं, मैं उसे यहीं उठाये लाता हूँ। अब देर न करायो । देखोः । वह जा रहा है-निकल न जाय ।"
नारी ने उच्चेजना दी हों लेना बढ़ के" :